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मेरी जीवन गाथा
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सकते हैं, उच्चगोत्र वाले उन्हे भक्ति पूर्वक दान देते हैं, उन्हें मन्दि जानेका प्रतिबन्ध नहीं | रहे अस्पृश्य शूद्र, जिन्हे हरिजन कहते है सो इनके भी व्रत प्रतिमा हो सकती है । ये १२ व्रत पाल सकते हैं. धर्म की भी अकाट्य श्रद्धा इन्हें हो सकती हैं फिर इनको भी देवदर्शनसे क्यों रोका जावे ? चरणानुयोग क्या आज्ञा देता है इसका तो हमे विशेष ज्ञान नहीं, परन्तु हृदय हमारा यह कहता है कि उनके साथ इतना वैमनस्य रखना अनुचित है । वह भी आखिर मनुष्य हैं, उन्हे भी धर्मका मर्म समझाना चाहिये । वह भी धर्म समझकर हिंसादि पापके त्यागी हो सकते हैं। ज्ञानके उपार्जनसे ही धर्मका श्रद्धान हो सकता हैं ।
श्रीमान् आचार्य शान्तिसागरजी महाराज वर्तमान कालमे अत्यन्त प्रभावशाली व्यक्ति हैं । उनके आदेशानुसार सम्पूर्ण दि०जैन जनता चलनेको प्रस्तुत है । आपने हरिजन मन्दिर प्रवेश विलके कारण आजीवन अन्न त्याग दिया है इससे सम्पूर्ण समाज बहुत ही खिन्न है । होना ही चाहिये ।
इसी अवसर पर मैंने महाराजसे निम्नाङ्कित निवेदन किया कि महाराज ! मैं आपसे कुछ निवेदन करूँ, सहस नहीं होता किन्तु एक नम्र निवेदन है कि जब चतुर्गतिके जीवोंको सम्यक्त्व होता है तब मनुष्य गतिमे जन्म पानेवाले हरिजन भी उसके पात्र हैं - तथा मनुष्य और तिर्यग्गतिमे जन्म लेनेवाले पञ्च गुणस्थानवत भी होते हैं तव क्या हरिजन इस गुणस्थानके पात्र नहीं हो सक्ते ? यह तो करणानुयोगकी कथा रही, परन्तु व्यवहारमे चरणानुयोग के अनुसार मनुष्य पर्यायमे जिसे देव, गुरु और शास्त्रकी श्रद्धा हो उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं । जब यह व्यवस्था है नत्र हरिजन भी इस श्रद्धाके पात्र हो सकते हैं, जब देव, शास्त्र और गुरु की श्रद्धाके पात्र हैं तव देव दर्शनके अधिकारी क्यों नहीं हो सकते ? जब