________________
मेरी जीवन गाथा
I
न हो ऐसी अभिलाषा रखना । प्राणीमात्रका दुःख दूर हो जावे इसकी अपेक्षा प्राणीमात्रको दुःख न हो यह भावना उत्कृष्ट है । जो आत्मगुण विकास मे ला चुके हैं ऐसे महानुभावोंको देखकर हर्षित हो जाना इस भावनाका नाम प्रमोदभावना है । हम आपके इस अर्थको श्रवण कर गद्गद हो गये । जो जीव क्लेश से पीड़ित है, दुखी हैं, दीन हैं, दारिद्र्य कर पीड़ित हैं तथा धनी होकर भी कृपण है उन्हें देखकर करुणा भाव करना तथा जो मोक्षमार्गकी कथा न तो स्वयं श्रवण करते हैं और न श्रवण करनेकी अभिलापा ही रखते हों ऐसे दुराग्रही लोगोमे माध्यस्थ्य भावना रखना ही उचित है । ऐसा जिस धर्मका अभिप्राय है - कहाँ तक कहे जहाँ उन जीवोंकी भी रक्षाका उपाय बतलाया है कि जो दृष्टिगोचर भी नहीं होते । जैसे अनाजके ऊपर जहाँ फुल्ली आ जावे वहाँ उस अनाजको उपयोगसे मत लाओ, जो रस स्वादसे चलित हो जावे उसे मत भक्षण करो । कहाँ तक लिखें जो जल जिस कूपादिसे लाये हो उसे छानकर जीवानी उसी जलाशयमे निक्षिप्त कर दो । जहाँ ऐसी दयाका वर्णन हो वहाँ पर हमारे साथ जो आपका व्यवहार है क्या वह प्रशंसनीय है ? हम इस बातको मानते हैं कि हमारा आचरण आप लोगों की अपेक्षा अच्छा नहीं है परन्तु यह सर्वथा मानना अच्छा नहीं, क्योंकि हम लोगों के यहाँ भी आटा, गेहूँ चुग चुग कर पीसा जाता है, चावल आदि भी चुग कर खाते हैं, शाकादिक देखकर बनाये जाते हैं। हाँ, पानी छानकर नहीं पीते तथा जैन मन्दिर नहीं जाते सो बहुतसे लोग आप भी ऐसे हैं जो बिना छना पानी पी जाते हैं तथा नियमपूर्वक मन्दिर नही जाते । अस्तु, इन युक्तियोसे हम आपको लज्जित नहीं करना चाहते परन्तु हृदयसे तो कहो कि आप जैनधर्मके प्रचारका कितना उपाय करते हो ? आप पैदल यात्रा कर रहे हैं इसलिये उचित तो यह था
२४