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बनारस और उसके अंचलमें
४४. श्री गोम्मटस्वामीके दर्शन कर आये । १ घंटा रहे। आप लोग श्री स्व० सूरिसागरजीके परम भक्त हैं। तेरापन्थके माननेवाले हैं। वास्तवमे धर्मका स्वरूप तो निर्विकार है। उपाधिसे नाना विकार मनुष्योंने उसमे ला दिये हैं अतः जिन्हे आत्मकल्याण करना हो उन्हें यह विकार दूर करना चाहिये।
गरमीकी प्रबलताके कारण कुछ समय विश्राम करनेकी इच्छा हुई। सारनाथ कोलाहलसे परे शान्तिपूर्ण स्थान है अतः ५५ दिन यहीं रहनेका विचार किया। एकान्त होनेसे स्वाध्यायका लाभ भी यहाँ अच्छा मिला। और चिन्तन भी अच्छा हुआ। अष्टमीका दिन था। मध्यान्हके बाद विचार आया कि चित्तकी स्थिरताके लिये क्या करना चाहिये ? हृदयसे उत्तर मिला कि संयम धारण करना चाहिये। उसी क्षण विचार आया कि संयम तो बहुत समयसे धारण किये हूँ फिर चित्तकी स्थिरता क्यों नहीं है। तत्र संयम शब्दके अर्थकी ओर दृष्टि गई । 'संयमनं संयमः' सम् उपसर्ग पूर्वक 'यम उपरमे' धातुसे संयम शब्द बना है जिसका अर्थ होता है सम्यक प्रकारसे रुक जाना। अर्थात् पञ्चन्द्रियोंके विषयोंमे जो प्रवृत्ति हो रही है उसका भले प्रकारसे रुक जाना संयम है । जब तक इन्द्रियोंके विषयोसे यथार्थ निवृत्ति नहीं होती तब तक नाम निक्षेपके संयमसे क्या लाभ होनेवाला है ? निवृत्तिका अर्थ तटस्थ रहना है तथा मनोनिग्रहका अर्थ कषाय कृशता है। इन्द्रियोके दमनका अर्थ इन्द्रियों द्वारा विषय जाननेका अभाव नहीं । उनने लोलुपता न होना चाहिये । शरीरदमन न कोई कर सकता है और न उसका दमन होता ही है । भोजन करनेसे शरीरकी तृप्ति नहीं होती किन्तु आत्मामें ही भोजन करनेकी जो इच्छा थी वह शान्त हो जाती है। वही तृप्तिका कारण है। जो केवल कायक्लेश करते हैं वे शान्तिके पान नहीं होते।