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मेरी जीवन गाथा
वताया। मुसलमान वादशाहोंमे यह विशेषता थी कि वे अपनी संस्कृतिके पोपक वाक्योको ही लिखते थे । जैनियोंमें बड़ी बडी लागतके मन्दिर हैं परन्तु उनसे स्वर्णका चित्राम मिलेगा, जैनधर्मके पोषक आगम वाक्योका लेख न मिलेगा । अस्तु, समयकी बलवत्ता है, धर्म जो आत्माकी शुद्ध परिणति है उसका सम्वन्ध यद्यपि साक्षात् आत्मासे है तथापि निमित्त कारणोकी अपेक्षा परम्परा बहुतसे कारण हैं । उन कारणो आगम वाक्य बहुत ही प्रवल कारण हैं । यदि इस मकबरासे पठन पाठनका काम किया जावे तो हजारों छात्र अध्ययन कर सकते हैं । इतने कमरोंमे अकारादि वर्णोंकी कक्षासे लेकर एम० ए० तककी कक्षा खुल सकती है, परन्तु इतनी विशाल इमारतका कोई उपयोग नहीं और न उत्तर काल मे होने की संभावना है । जो राज्यसत्ता है वह यह चाहती है कि ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये कि जिससे किसीको आघात पहुँचे । यह ठीक है परन्तु निरर्थक पड़ी रहे यह भी ठीक नहीं, उसका उपयोग भी तो होना चाहिये ।
यहाँ से चलकर सिकन्दराबाद आ गये । यहाँ पर श्रीमान् पं० माणिकचन्द्र जी न्यायाचार्य भी आए। आप बहुत ही शिष्ट और विद्वान् हैं। आपने श्लोकवार्तिक भाष्यका भावानुवाद किया है । आपके अनेक शिष्य वर्तमानकालीन मुख्य विद्वानोकी गणना मे हैं। यहाँ ५-७ घर जैनियों के हैं । मकबराका वृहद् भवन निरर्थक पड़ा है इसकी चर्चा मैंने पण्डितजीसे भी की परन्तु सत्ता के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता यह विचार कर संतोप धारण किया । मनमें विचार आया कि -
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मोही जीवों की मान्यता विलक्षण है और इसी मान्यताका फल यह संसार है । जहाँ शुभ परिणामोंकी प्रचुरता है वहाँ बाह्यमें मनुष्यों के प्रति सद्व्यवहार है । परन्तु यहाँ तो धर्मान्धताकी उनी