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मधुरा में जैन संघका अधिवेशन
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प्रचुरता है कि जो इसलाम धर्मको नही मानते वे काफिर हैं । यह लिखना मतकी अपेक्षा प्रत्येक मतवाले लिखते हैं । जैसे वैदिक धर्मवाले कहते हैं कि जो वेदवाक्यों पर श्रद्धा न करे वह नास्तिक है । जैनधर्मवालोंका यह कहना है कि जिसे जैनधर्म की श्रद्धा नहीं वह मिध्यादृष्टि है। यद्यपि ऐसा कहना या लिखना अपनी अपनी मान्यताके अनुकूल है तथापि इसका यह अर्थ तो नहीं कि जो अपने धर्मको न माने उसको कष्ट पहुँचाओ । मुसलिम धर्ममे काफिर के मारनेमे कोई पाप नहीं । वलिहारी है इन विचारोकी । विचारोंमे विभिन्नता रहना कोई हानिकर नहीं परन्तु किसी प्राणीको बलात् कष्ट देना परम अन्याय है । परन्तु यह संसार है । इसमे म अपनी मानवताको भूल दानवताको आत्मीय परिणति मान कर जो न करे अल्प है | अन्यायी जीव क्या क्या अनर्थ नहीं करते यह किसीसे गुप्त नहीं। धर्मकी मार्मिकताको न समझ कर मनुष्य अपने अनुकूल होनेसे ही चाहे वह कैसा ही हो उसे आदर देता है और यदि प्रतिकूल हो तो अनादरका पात्र वना देता है । वास्तवमें धर्म कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं किन्तु जिसमे जो रहता है वही उसका धर्म है । जलमे उप्ण स्पर्श नहीं रहता इसलिये वह उसका धर्म नहीं है। अग्निका सम्बन्ध पाकर जल उष्ण हो जाता है । यद्यपि उष्णस्पर्शका तादात्म्य वर्तमान जलसे है तथापि वह उसमे सर्वथा नहीं रहता अतः उसका स्वभाव नहीं कहा जा सकता । स्वभाव वह है जो पदार्थमे स्वत रहता है और विभाव वह है जो परके संसर्ग उत्पन्न होता है । इसी प्रकार जीवमे ज्ञान रहता है अतः वह उसका स्वभाव है। यद्यपि ज्ञान वर्तमान कर्मोदयसे रागादिरूप हो जाता है तथापि परमार्थसे ज्ञानमें राग नहीं । वह तो आत्माका
दयिक परिणाम है । जिस कालमें चारित्रमोहकी राग प्रकृतिका उदय होता है उस कालमें आत्माका प्रीतिरूप परिणाम