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सहारनपुर-सरसावा
७७ हो जाना इनके पूर्व संस्कारका फल है । ज्ञानका संस्कार पर्यान्तरमे साथ जाता है, इसलिये साधन रहते हए मनुप्यको ज्ञानार्जनमे कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये । यहाँ प्रवचनोमे लोगोंका समुदाय बहुत आता है, परन्तु न तो तात्त्विक लाभ उठाता है और न तात्विक धर्मके ऊपर दृष्टि है। केवल वाह्य प्रभावनामे अपना सर्वस्त्र लगाकर धर्मका उत्कर्ष मानते हैं। प्रभावनाका प्रभाव साधारण जनता पर पड़ता है और साधारण जनता वाह्य वेपको देखकर केवल इतना समझ लेती है कि इन लोगोंके पास द्रव्यकी पुप्फलता है। ये लोग व्यापारी हैं। इन्हे संग्रह करनेकी युक्ति विदित है। वास्तवमे पूछा जाय तो आजका मनुष्य इन वाह्याडम्बरोसे प्रभावित नहीं होता। उसे प्रभावित करनेके लिये तो उसका अजान दूर होना चाहिये । ज्ञानकी महिमा अपरम्पार है। उसका जिसे स्वाद आ गया वह बाह्य पदार्थोकी अपेक्षा नहीं करता। यहाँ गुरुकुलकी उघाई करनेका कार्य हुआ। एक महानुभावने २ कमरा गुरुकुलके लिये बनानेका वचन दिया। दो वी ए. लड़कोंने यह प्रतिज्ञा ली कि विवाहमे रुपया नहीं मॉगंगे। दो ने यह नियम लिया कि जो खर्च होगा उसमे )। पैसा प्रति रुपया विशालय को देवेंगे। कई मनुष्योंने विवाहमे कन्या पक्षसे याञ्चा न करनेका नियम लिया । श्री लाला प्रद्युम्नकुमार जी रईसने गुरुकुल के लिये २६ बीघा जमीन देनेका वचन दिया तथा १०००) स्याद्वाद विद्यालय को भी प्रदान किये । यहाँ १०-११ दिन रहे। सभी दिनोंमे समागम अच्छा रहा। मोहोदयमे समागम अच्छा लगता है। मोहकी महिमा देखो कि लोग जिस समागमसे बचनेके लिये गृहका त्याग करते हैं, त्यागी होने पर भी उन्हे वही समागम अच्छा लगता है। परमार्थतः मोह गया नहीं है, उसने रूप भर बदल लिया है।