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________________ स्वर्णगिरिकी ओर २४१ तीसरे दिन भी यहाँ प्रवचन हुआ। आज उपस्थिति पिछले दिनांसे अधिक थी। तहसीलदार, नायव तहसीलदार तथा वकील आदि विशिष्ट लोग आये। वहतसे पण्डित महोदय भी उपस्थित थे। प्रवचन सुन कर सव प्रसन्न हुए। जैनधर्म तो प्राणीमात्रका कल्याण चाहता है। उसकी बात सुनकर किसे प्रसन्नताका अनुभव न होगा ? केवल आवश्यकता इस वातकी है कि श्रोता सद्भावसे सुने और वक्ता सद्भावसे कहे। फाल्गुन कृपणा ६ को २ बजे बाद जब यहाँसे सामरमऊ चलने लगे तव यहाँके उत्साही युवकोंने कहा कि यहाँ १ कन्याशाला हो जावे तो उनका बड़ा उपकार हो। मैंने कहा कि करना तो तुमको है चन्दा करो। १५ मिनटमे ४३) मासिकका चन्दा हो गया । ६ मासका चन्दा पहले देनेका निर्णय हुआ। सब लोगोंमे उत्साह रहा । ३॥ बजे यहाँसे चल दिये । १५ युवक सामरमऊतक पहुँचाने आये । यहाँपर १ बुढ़ियाने सबको सायंकालका भोजन कराया। रात्रिको शास्त्रप्रवचन हुआ। यहाँपर बुढ़ियाकी एक लड़की विधवा है । ३० वर्षकी आयु है । नाम जिनमती है, बुद्धिमती है। हमने कहा महावीरजी पढ़ने चली जा। उसने स्वीकार किया कि जाऊँगी । बुढ़िया ने १०) मासिक देना स्वीकार किया । यद्यपि उसकी इतनी शक्ति न थी तथापि उसने देना स्वीकृत किया। उसका कहना था कि मैं अपनी लड़कीको अनाथ क्यों बनाऊँ ? जब तक मेरे पास द्रव्य है उसे दूंगी। लडकी भी सुशीला है। संसारमें अनेक मनुष्य उपकार करने योग्य हैं परन्तु जिनके पास धन है उनके परिणाम यदि तदनुकूल हों तो काम बने पर ऐसा हो सकना संभव नहीं है। यह कर्मभूमि है । इसमे सर्व मनुष्य सदृश नहीं हो सकते। सागरमऊसे ५ मील चलकर नदगुवाँ आ गये । ग्राम अच्छा है, मन्दिर विशाल है, भट्टारकका बनाया है। इस प्रान्तमें भट्टारकोंने
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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