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________________ २६० मेरी जीवन गाथा प्रत्येक मनुष्यसे मेल कर लेता है। अभी आयु विशेष नहीं अतः स्वभावमें बालकता है। ऐसा बोध होता है कि काल णकर यह बालक विशेष कार्य करेगा। आजकल विज्ञानका युग है। इसमें जो पुरुषार्थ करेगा वह उन्नति करेगा। जो मनुष्य पुरुषार्थी हैं वे आत्मीय उन्नतिके पात्र हो जाते हैं। जो आलसी मनुष्य हैं वे दुःखके पात्र होते हैं। मनुष्य जन्म पानेका यही फल है । स्वपरका हित किया जाय । वैसे तो संसारमे श्वान भी अपना पेट पालन करते हैं। मनुप्यकी उत्कृष्टता इसीमे हैं कि अपनेको मनुष्य वनावें, मनुष्यका ज्ञान और विवेक इतर योनियोंमें जन्म लेनेवाले जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट है। तिर्थञ्चोंमें तो पर्याय सम्बन्धी ज्ञान होता है। यद्यपि देव नारकी विशिष्ट ज्ञानी होते हैं परन्तु उनका ज्ञान भी मर्यादित रहता है तथा वे देव नारकी संयम भी धारण नहीं कर सकते। तिर्यश्च देशसंयमका पात्र हो सकता है परन्तु इतना ज्ञान उसका नहीं कि अन्य जीवोंका कल्याण कर सके। मनुप्यका ज्ञान परोपकारी है तथा उसका संयम गुण भी ऐसा निर्मल हो सकता है कि इतर मनुष्य उसका अनुकरण कर अपनेको संयमी वनानेके पान हो जाते हैं। ___ ज्येष्ठ शुक्ला ३ सं० २००८ को ललितपुरसे बहतसे प्रतिष्ठित सज्जन आये और आग्रह पूर्वक कहने लगे कि आपको क्षेत्रपालललितपुरका चातुर्मास्य करना चाहिये। हमने उनके प्रस्तावको स्वीकृत किया तथा निश्चय किया कि वर्षामे ललितपुर रहना ही उत्तम है। वहाँ रहनेसे प्रथम तो सागर सन्निहित है। यहाँवाले विरोध करते हैं-यह स्वाभाविक बात है । जहाँ रहो वहाँ समुदायसे स्नेह हो जाता है तथा व्यक्ति विशेषसे भी घनिष्ठता बढ़ जाती हैं परमार्थसे' यह स्नेह ही संसारका कारण है। यद्यपि लोग इसे धार्मिक स्नेह कहते हैं परन्तु पर्यवसानमे इसका फल उत्तम नहीं।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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