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________________ १८४ मेरी जीवन गाथा . एक महाशयने तो जैनमित्रमे यहाँ तक लिख दिया कि तुम्हारा क्षुल्लक पद छीन लिया जावेगा, मानों धर्मकी सत्ता आपके हाथोंमे आ गई हो। यह 'संजद' पद नहीं जो हटा दिया। जैनदर्शनके सम्पादकने जो लिखा उसका उत्तर देना मेरे ज्ञानका विषय नहीं है क्योंकि मैं न आगमज्ञ हूँ और न अव हो सकता हूँ परन्तु मेरा हृदय यह साक्षी देता है कि मनुष्य पर्यायवाला चाहे वह किसी जातिका हो कल्याणमार्गका पात्र हो सकता है। शद्र भी सदाचारका पात्र है। हाँ, यह अन्य बात है कि आप लोगोंके द्वारा जो मन्दिर निर्माण किये गये हैं उनमें मत आने दो । गवर्नमेण्ट भी ऐसा कानून आपके अनुकूल बना देवे परन्तु जो सिद्ध क्षेत्र हैं कोई आपको अधिकार नहीं जो उन्हें वहाँ जाने पर रोक लगा सको। जो आपके मन्दिरमे शास्त्र हैं उन्हें न वॉचने दो किन्तु जो पबलिक वाचनालय हैं उनमे आप उन्हे नहीं मना कर सकते। यदि वह पञ्च पाप छोड़ देवें और रागादि रहित आत्माको पूज्य माने अर्हत्का स्मरण करें तो क्या रोक सकते हो ? अथवा जो आपकी इच्छा हो सो करो। ___ मुझे धमकी दी कि पीछी कमण्डलु छीन लेवेंगे छीन लो, सर्व अनुयायी मिल जाओ चर्या बन्द कर दो परन्तु जो हमारी श्रद्धा धर्ममें है उसे भी छीन लोगे ? मेरा हृदय किसीकी वन्दर घुड़कीसे नहीं डरता। मेरे हृदयमे तो दृढ़ विश्वास है कि अस्पृश्य शूद्र सम्यग्दर्शन और व्रतोंका पात्र है मन्दिर आने जानेकी बात आप जानें या जो आचार्य महाराज कहे उसे मानो । यदि अस्पृश्यताका सम्बन्ध शरीरसे है तो रहो आत्मा की क्या हानि है ? यदि आत्मासे है तो जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया फिर अस्पृश्यता कहाँ रही ? मेरा तो विश्वास है कि गुणस्थानों की परिपाटीसे जो मिथ्यागुणस्थान वर्ती है वह पापी है चाहे वह उत्तम वर्णका क्यों
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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