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उदासीनानन शोर संस्कृत विद्यालयका उपक्रम १८३ साधन देव शास्त्र गुरु हैं। आप लोगोंने यहाँ तक प्रतिबन्ध लगा रक्से हैं कि प्रत्गृश्य शूद्रादिको मन्दिर पानेका अधिकार नहीं। उनके पानसे मन्दिरमे अनेक प्रकारके विघ्न होनेकी संभावना है। चादि शान्तभावसे विचार करो तो पता लगेगा कि हानि नहीं लाभ ही होगा। प्रथम तो जो हिसादि पाप संसारमे होते हैं यदि वह अस्पृश्य शन, जैनधर्मको अंगीकार करेंगे तो वह महापाप अनायास फम हो जायेंगे। ऐसा न हो, यदि दैवात् हो जावें तो आप क्या करोगे ? चांडालके भी राजाका पुत्र चमर डुलता देखा गया ऐसी कथा प्रसिद्ध है क्या यह गप्प है ? अथवा कथा छोड़ो श्री समन्तभद्र स्वामीने रत्नकारण्डमें लिखा है
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहनम् ।
देवा देवं विदुर्भस्म गूढाङ्गारान्तरोजसम् ॥ आत्मामे अचिन्त्य शक्ति है जिस प्रकार आत्मा अनन्त संसारके कारण मिथ्यात्वके करनेमे समर्थ है उसी प्रकार अनन्त संसारके बन्धन काटनेमें भी समर्थ है। आप विद्वान् हैं जो आपकी इच्छा हो सो लिखिये परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य कोई लिखे उसे रोकनेकी चेष्टा करें। आपकी दया तो प्रसिद्ध है रहो, हमें इसमे आपत्ति नहीं। आप सप्रमाण यह लिखिए कि अस्पृश्य शूद्रोंको चरणातुयोगकी आज्ञासे धर्म करनेका कितना अधिकार है ? तव हम लोगोका यह वाद जो आपको अरुचिकर हो शान्त हो जावेगा। श्री आचार्य महाराजसे इस व्यवस्थाको पूछकर लिख दीजिये जिसमे व्यर्थ विवाद न हो। केवल समालोचनासे कुछ नहीं, शूद्रोंके विपयमें जो भी लिखा जावे सप्रमाण लिखा जावे। कोई शक्ति नहीं जो किसीके विचारोंका घात कर सके निमित्त तो अपना कार्य करेगा उपादान अपना करेगा।