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मेरी जीवन गाथा कि शास्त्रके समय में अवश्य रहूँ | जिस दिन उसका नागा हो जाता
था उस दिन बहुत खिन्न रहता था। मांसादिका त्यागी था। एक दिन वह अपने मुखियाको लाया। मुखिया बोला-कुछ कहते हो ? मैंने एक नया उत्तरीय वस्त्र उसे दिया और कहा कि तुम यह वस्त्र अपने साधु महात्माको देना और उनसे हमारा जयराम कहना तथा जो वह कहैं सो उनका सन्देशा हम तक पहुँचाना । दूसरे दिन वह अपने साधुका संदेश लाया कि जो वर्णीजी कहे सो अपनेको करना चाहिये। क्या कहते हो ? मैंने कहा-जो तुम्हारे भोज होनेवाला है उसमें माँस न वनाना । 'जो आजा' कहता हुआ वह चला गया फिर २ दिन बाद आया और कहने लगा कि हमारे जो भोज था उसमे मॉस नहीं बनाया गया। ___ आप लोगोंने यह समझ रक्खा है कि जो हम व्यवस्था करें वही धर्म है। धर्मका सम्बन्ध आत्मन्यसे है न कि शरीरसे । हाँ, यह अवश्य है कि जब तक आत्मा असंज्ञी रहता है तब तक वह सम्यग्दर्शनका पात्र नहीं होता संज्ञी होते ही धर्मका पान हो जाता है । आर्ष वाक्य है-चारों गतिवाला संज्ञी पञ्चेंद्रिय जीव इस अनन्त संसारके नाशक सम्यग्दर्शनका पात्र हो सकता है। वहाँ पर यह नहीं लिखा कि अस्पृश्य शूद्र या हिंसक सिंह या व्यन्तरादिक देव या नरकके नारकी इसके पात्र नहीं होते। जनताको भ्रममें डाल कर हर एकको वावला कह देना कोई बुद्धिमत्ता नहीं। आप जानते हैं-संसारमे यावत् प्राणी हैं सर्व सुख चाहते हैं और सुखका कारण धर्म है। यद्यपि धर्मका अन्तरङ्ग साधन निजमें ही है तथापि उसके विकासके लिये वाह्य साधनोंकी आवश्यकता होती है। जैसे घटोत्पत्ति मृत्तिकासे ही होती है फिर भी कुम्भकारादि वाह्य साधनोंकी आवश्यकता अपेक्षित है एवं अन्तरङ्ग साधन तो आत्मामे ही है फिर भी वाह्य साधनोंकी अपेक्षा रखता है। बाह्य