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मेरी जीवन गाथा ठीक है कि उसके व्यवहार में शुद्ध वस्त्रादि होना चाहिये तथा मद्य मास मधुका त्यागी होना चाहिये । व्यवहारधर्मकी यह बात है।
निश्चयधर्मका सम्बन्ध आत्मासे है। उसका तो यहाँपर विवाद ही नहीं है, क्योंकि उसके पालनके प्रत्येक संज्ञी जीव पान हो सकते हैं। धर्म प्रत्येक प्राणीका प्राण है। उसके बिना आत्मा जीवित नहीं रह सकता। त्रिकालमें उसका सद्भाव है। जैसे पुद्गलमें स्पर्श रस गन्ध वर्ण रहते हैं, उनके विना पुद्गलका अस्तित्व नहीं इसी प्रकार आत्माका धर्म दर्शन-ज्ञान है । इनसे शून्य
आत्मा नहीं रह सकता हाँ, यह अवश्य है कि स्पशादिका परिणमन किसी रूपमे हो किन्तु सामान्य स्पर्शादिगुणके विना जैसे उसके विशेष नहीं रह सकते इसी प्रकार दर्शन-ज्ञानका परिणमन कोई रूपमे हो उनके विना यह परिणमन विशेष नहीं रह सकता। जब यह व्यवस्था है तब सर्व जीव दर्शन-ज्ञानके पात्र हैं। उनके अन्दर जो विकृति आगई उसका अभाव करना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिये । जब यह बात है तब जैसे हम संज्ञी हैं और आत्महित चाहते हैं ऐसे ही और मनुष्य भी चाहे किसी जातिविशेषके हों उन्हे भी आत्महित करनेका अधिकार है। इसके सिवाय जब उनके वज्रर्षभनाराच संहनन हो सकता है और वे सप्तम नरक जानेका पापोपार्जन कर सकते हैं तव उत्तम पुण्य उपार्जन करलें इसमे क्या क्षति है ? पशुओंमें मत्स्य सप्तम नरक जाता है उसके दृष्टान्तसे यह वाधित नहीं, क्योंकि मनुष्य पर्याय तिर्यक् पर्यायसे भिन्न है । आगसमे शूद्रके नुल्लक पर्याय हो सकती है ऐसा विधान है तर क्या शूद्र लोग उसे आहार नहीं दे सकते ? यह समझमे नही
आता। यदि आहार दे सकते हैं तो श्रीजिनेन्द्रदेवके दर्शनके अधिकारी न हों यह बुद्धिमे नहीं आता। केवल हठवादको छोडकर अन्य युक्ति नहीं। धर्म तो आत्माकी उस निर्मल परिणतिको कहते हैं