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दिल्लीका ऐतिहासिक महत्त्व और राजा हरसुखराय १०५ कि राजा साहबने मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर हम जैनियोंकी प्रतिष्ठा कम करो दी आदि। कुछ लोग राजा साहबके पास पहुंचे और काम बन्द करनेका कारण पूछने लगे। उन्होंने उत्तर दिया कि भाईयो! अपनी स्थिति छिपाना बुरा है, अतः आप लोगोंसे कहता हूँ कि मेरी जितनी पॅजी थी वह सब इसमे लग गयी। अब आप लोग चंदा एकत्रितकर वाकी कार्य पूरा करा लीजिये । राजा साहवके इतना कहते ही उनके इष्ट-मित्रोंने असर्फियोंके ढेर उनके सामने लगा दिये। उन्होंने कहा कि नहीं, इतने धनका अव काम बाकी नहीं है, वहुत थोड़ा ही काम बाकी रह गया है सो उसे आप एक दो नहीं किन्तु समस्त जैनियोंसे थोड़ा थोडा इकट्ठा लाइये । आज्ञानुसार समस्त जैनियोंके घरसे चन्दा इकट्ठा हुआ, उससे मन्दिर पूरा हुआ।
जब वि० सं० १८६४ मे मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई और कलशारोहणका समय आया तब सब लोगोंने राजा साहबसे प्रार्थना की कि आप कलशारोहण कीजिये । इसके उत्तरमे राजासाहवने पगड़ी उतारकर कहा कि भाइयो । मन्दिर मेरा नहीं है समस्त जैन भाइयोंके चन्दासे इसका निमोण हुआ है, इसलिए पञ्चायत इसका कलशारोहण करे और वही उसका प्रबन्ध करे। उस समय लोगोंकी समझमे आया कि राजा साहबने काम वन्दकर इसलिये चन्दा कराया था। वे लोग गद्गद हो गये। राजा साहबने कहा भाइयो । यदि मैं इसमे आप लोगोंका सयोग न लेता तो सदा मेरे मनमें यह अहंकार उठता रहता कि यह मन्दिर मेरा है अथवा मेरी बात जाने दो, हमारी जो संतान आगे होगी उसके मनमें भी यह अहंकार उठता रहेगा कि यह मेरे पूर्वजोंका वनवाया हुआ है। आप सबके चन्दासे इसका काम पूरा हुआ है, इसलिये यह आप सबका मन्दिर है। रा इसके ऊपर कुछ भी स्वत्त्व आजसे नहीं है। उसी समयसे