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मेरी जीवन गाथा अपने परिग्रहमें लीन है । कोई उपदेश भी देते हैं तो तमाखू छोड़ो, भाँग छोड़ो, रात्रिको मत खाओ " यह उपदेश नहीं देते, क्योंकि वे स्वयं इन व्यसनोके शिकार रहते हैं। यथार्थ उपदेशके अभावमें ही देशका नैतिक चारित्र निर्मल होनेकी जगह मलिन हो रहा है । यद्यपि सम्प्रदाय भेद होनेसे भिन्न भिन्न सम्प्रदायके साधु हैं तथापि
आत्माको चैतन्य मानना पञ्च पाप त्यागना यह तो प्राणिमात्रके लिये उपदेश देना चाहिये । इसमे क्या हानि है ? अथवा यह तो दूर रहो प्रथम तो उपदेश ही नहीं देते । यदि देते भी हैं तो ऐसा उपदेश देखेंगे जिसका सामान्य मनुष्योंको बोध भी नहीं होगा कि महाराज क्या कह रहे हैं ? आप पैदल यात्रा करते हैं यह बहुत ही उत्तम है परन्तु आप जो आपके परिकरमें हैं उन्हें उपदेश देवेंगे या जहाँ जैन जनता मिल जावेगी वहाँ उपदेश देवेंगे। हम लोगों को आपके पैदल भ्रमणसे क्या लाभ ? आपको तो सर्व प्राणिवर्गके साथ धार्मिक प्रेम रखना चाहिये। धर्म तो धर्मीका होता है। हम भी तो धमी (आत्मा) हैं अतः हमको भी धर्मका तत्त्व समझाना चाहिये। मेरा तो दृढ़तम विश्वास है कि यदि वक्ता सुबोध और दयालु है तो श्रोतागण उससे अवश्य लाभ उठावेंगे। हम लोग इतने संकुचित विचारके हो गये हैं कि इतरको दीन समझ सदुपदेशसे वंचित रखते हैं। मैं तो इसका अर्थ यह जानती हू कि जो वक्ता स्वयं मोक्षमार्गसे वश्चित है वह इतरको उससे लाभान्वित कैसे कर सकता है ? अतः मेरी आपसे नम्र प्रार्थना है कि आप अपनी पैदल यात्राका यथार्थ लाभ उठावें । वह लाभ आप तभी उठा सकेंगे जब धर्मका उपदेश प्राणीमात्रके लिये श्रवण करावेंगे। जो बातें मैंने आपके समक्ष प्रदशित की यदि उनमें कुछ तथ्यांश दृष्टिमें आवे तो उन्हें स्वीकृत करना अन्यथा त्याग देना। इतना बोलनेका साहस मैंने आज ही किया और आपने सुन लिया