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मेरी जीवन गाथा
यहाँ स्त्री समाजमे स्वाध्यायकी अच्छी प्रवृत्ति चली है । कई स्त्रियाँ तो शास्त्रका अच्छा ज्ञान रखती हैं।
मन्दिरमे शास्त्रका प्रवचन हुआ। प्रकरण था स्त्र द्रव्य और पर द्रव्यका । ज्ञाता-ष्टा आत्मा स्व द्रव्य है और कर्म नोकर्म पर द्रव्य हैं। अनादि कालसे यह जीव पर द्रव्यका ग्रहण कर उसका स्वामी वन रहा है। पर द्रव्यको अपना माननेमे अज्ञान ही मूल कारण है, अन्यथा ऐसा कौन विवेकी होगा जो परको जानता हुआ भी उसे ग्रहण करे। जिसका जो भाव है वही उसका स्त्र है और वही उसका स्वामी है। जव यह सिद्धान्त है तब ज्ञानी मनुष्य परका ग्रहण कैसे कर सकता है ? इस भवाटवीमे मार्ग प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। मोह राजाकी यह अटवी है। इसके रक्षक रागद्वेप हैं। इनसे यह निरन्तर रक्षित रहती है। जीवोंका इससे निकलना अति कठिन है। जिन महापुरुषोंने अपनेको पहिचाना वे ही इससे निकल सकते हैं। ___दूसरे दिन ईसरीसे व्र० सुरेन्द्रनाथजी आ गये । आप बहुत ही सरल प्रकृतिके मनुष्य हैं। आपका त्याग अतिनिर्मल है । स्वाध्यायके प्रति प्रेमी हैं। विनय गुणके भण्डार हैं। उदार भी हैं। कलकत्ता निवासी हैं। घरसे उदास रहते हैं। इतने निर्मोही है कि लड़का मोटरसे गिर पड़ा फिर भी कलकत्ता नहीं गये। एक दिन वाद श्रीप्यारेलालजी भगत कलकत्तासे आये । श्राप अनुभवी दयालु भी हैं। आपका निवास अधिकतर कलकत्तामे रहता ह । श्राप प्राचीन पद्धतिके रक्षक हैं। किसीके रौवमे नहीं पाते । श्रापकी व्याख्यानशैली उत्तम है। आपने आकर बहुत ही प्रेमसे बातालाप किया । एक दिन डालमियानगरसे बाबू जगतप्रसादजीरा शुभागमन हुआ, साथमे पण्डित चेतनदामजी भी थे। आप अत्यन्त सरल स्वभावके हैं । कल्याण चाहते हैं। ययि उन्हें धार्मिर पुग्यों