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________________ पर्व प्रवचनावली ३६३ दी। वेश्याने उत्तम थालीमे भोजन परोस दिया । पश्चात् वेश्या बोली- महाराज | एक भावना बाकी और रह गई है। मैं चाहती हूँ कि मैं एक ग्रास थालीसे उठाकर आपके मुखमे दे दूँ तो मेरे जन्म जन्मके पाप कट जावें। इस कार्यके लिये मैं दश मुहरें चढ़ाती हूं। दश मुहरोंका लाभ देख उसने वेश्याके हाथसे भोजन करना स्वीकृत कर लिया । वेश्याने जो ग्रास मुखमे देनेके लिये उठाया था उसे मुखतक ले जानेके बाद छोड़ दिया और उसके गालमे जोर की थप्पड़ मारते हुए कहा कि समझे पापका वाप क्या है ? पाप का वाप लोभ है। कहाँ तो आप वेश्याके घर आनेपर ग्लानिसे नीचे उतरने लगे थे और कहाँ उसके हाथका ग्रास खानेके लिये तैयार हो गये ? यह सव महिमा लोभकी है । मुहरोंके लोभने श्रापको धर्मकमसे भ्रष्ट कर दिया है। शौच पवित्रताको कहते हैं और यह पवित्रता वाह्य आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकार की है । अपने अपने पदके अनुसार लौकिक शुद्धिका विचार रखना वाह्य शुद्धि है और अन्तरगमें लोभादि कपायोंका कम करना आभ्यन्तर शुद्धि है । 'गङ्गास्नानान्मुक्ति.'गडा स्नानसे मुक्ति होती है इसे जिन शासन नहीं मानता । उससे शरीरका मल छूट जानेके कारण लौकिक शुद्धि हो पर वास्तविक शुद्धि तो आत्मामे लोभादि कपायोंके कृश करनेसे ही होती है। अर्जुनके प्रति उपदेश है आत्मा नदी संयमपुण्यतीर्था __सत्योदका शीलतटा नयोमिः। तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा सुद्धयति चान्तरात्मा । संयम ही जिसका पवित्र घांट है, सत्य ही जिसमे पानी भरा है, शील ही जिसके तट हैं और दया रूप भवरें जिसमे उठ
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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