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मेरी जीवन गाथा
गया कि १८ कोड़ाकोड़ी सागरके वाद इस महापुरुषका जन्म हुआ और यह सामान्य जीवोंकी तरह संसार में फॅस रहा है, स्त्रियों और पुत्रोंके स्नेहमे डूब रहा है, संसारके प्राणियोंका कल्याण कैसे होगा ? उसने यह सोच कर नीलञ्जनाके नृत्यका आयोजन किया और उस निमित्तसे भगवान्का मोह दूर हुआ । जव मोह दूर हुआ तब ही उनका और उनके द्वारा अनन्त संसारी प्राणियों का क्ल्याण हुआ । रामचन्द्रजी सीताके स्नेहमे कितने भटके, लड़ाई लडी, अनेकोंका संहार किया पर जब स्नेह दूर हो गया तव सीताके जीव प्रतीन्द्रने कितना प्रयत्न किया उन्हें तपसे विचलित करनेका । पर क्या वह विचलित हुए ? मोह ही संसारका कारण है मेरा यही अटल श्रद्धा है ।
हम मोहके कारण ही अपने आपको दुनियाँका कर्ता-धर्ता मानते हैं पर यथार्थमे पूछो तो कौन कहाँका ? कहाँकी स्त्री ? कहाँका पुत्र ? कौन किसको अपनी इच्छानुसार परिणमा सकता है । 'कहींकी ईट कहीका रोरा भानमतीने कुरमा जोड़ा' ठीक हम लोग भी भानमती के समान ही कुरमा जोड़ रहे हैं । नहीं तो कहाँ का मनुष्य, कहाँका क्या ? इसलिए जो संसारके बन्धन से छूटना चाहते हैं उन्हें मोहको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये | आप लोग विना कुछ किये कल्याण चाहते हो पर वह इस तरह होनेका नहीं । आपका हाल ऐसा है कि 'अम्मा मैं तैरना सीखूँगा पर पानीका स्पर्श नहीं करूँगा' ।