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मेरी जीवन गाथा ., पौष- कृष्ण ११ -सं० २००७ के दिन इन्दौरवाले यात्री आये। आत्म-कल्याणकी लालसासे आदमी यत्र तत्र भ्रमण करते हैं। जैसे गर्मीकी ऋतुमें पिपासातुर हरिण दो घूट पानीसे लिए इधर-उधर दौड़ता है उसी प्रकार जगत्के मानव भी धर्मकी लालसासे जहाँ तहाँ दौड़ रहे हैं। कोई तीर्थक्षेत्र जाता है तो कोई किसी मुनि क्षुल्लक आदि उत्तम पुरुषोंकी संगतिमें जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि धर्म पदार्थ इतना व्यापक है कि प्रत्येक व्यक्ति इसे आत्मीय मानता है। जितने मत संसारमें प्रचलित हैं धर्म ही उनका प्राण है । इसके विना कोई भी मत जीवित नहीं रह सकता। जिस प्रकार मनुष्यमें इन्द्रियादि प्राण हैं उसी प्रकार मतमतान्तरोंमें धर्मप्राण है। किन्तु उसकी यथार्थताके बिना आज जगत् अनेक संकटोंका पात्र बन रहा है। इसका मूल कारण धर्मके स्वरूपको न समझकर उठनेवाली नाना प्रकारकी कल्पनाएँ हैं। कोई तो पृथिवी विशेषके स्पर्शमें धर्म मानते हैं अर्थात् विशेष स्थान ( तीर्थक्षेत्र) का स्पर्श करनेसे आत्मा पवित्र हो जाती है तो कोई पानीके स्पर्शको ही धर्मका साधन मानते हैं अर्थात् अमुक नदी या तडाग आदिके जलका स्पर्श करते-उसमें स्नान करनेसे धर्म मानते हैं और कोई अग्निको ही धर्मका साधन समझ उसकी पूजा करते हैं । परन्तु यथार्थमें धर्म आत्माकी निर्मल परिणति है। निर्मलता कपायके अभाव मे आती है और कषायका अभाव स्वपरके वास्तविक स्वरूपको समझ लेनेसे होता है अतः स्त्रपरके यथार्थ स्वरूपको समझो । यथार्थ स्वरूपके सामने आत्माको छोड़ पुद्गल या उसके निमित्तसे उत्पन्न विकारको आत्मा न मानो और ज्ञान-दर्शनादि अनन्तगुणोंका पुञ्ज जो आत्मा है उसे पृथिवी आदिका विकार मत जानो।
चरणानुयोगके सिद्धान्त अटल हैं। उनका तात्पर्य यही है