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फिरोजाबादकी ओर कि पर पदार्थोंसे ममता हटाओ। हम लोग पर पदार्थोंका त्याग कर प्रसन्न हो जाते हैं और मनमें सोचते हैं कि हमने बहुत उत्तम कार्य किया। यहाँ परमार्थसे विचार करो कि जो पदार्थ हमने त्यागे वे क्या हमारे थे ? आप यही कहेंगे कि हमसे भिन्न थे तब आप जो उनको आत्मीय समझ रहे थे यही महती अज्ञानता थी । यावत् आपको भेदज्ञान न था उन्हे निज मान रहे थे । यही अनन्त संसारके बन्धनका भाव था। भेदज्ञान होनेसे आपकी अज्ञानता चली गई। फिर यदि आप उस पदार्थको दानकर फल चाहते हैं तो दूसरेको अज्ञान वनानेका ही प्रयास है और तुम स्वयं आत्मीय भेदज्ञानको मिटानेका प्रयास कर रहे हो। यह जो दानकी पद्धति हे वह अल्पज्ञानियों के लिये है । भेदज्ञानवाले तो इससे तटस्थ रहते हैं अतः दान लेने देनेका व्यवहार छोड़ो। वस्तु पर विचार करो। आत्मा ज्ञाता दृष्टा स्वयमेव है। उसमें विकार न आने दो । विकारका अर्थ यह कि ज्ञानदर्शनका कार्य जानना देखना है उसे मोह राग द्वेषसे कलङ्कित मत करो। इसीका नाम मोक्ष है, जहाँ राग द्वेष मोह है वहीं संसार है, जहाँ संसार है वहीं बन्धन है और जहाँ बन्धन है वहीं पराधीनता है। ___ पौष कृष्ण १३ सं० २००७ को यहाँ मल्लिसागर जी दिगम्बर मुनि आये। आपके आनेका समाचार श्रवण कर बहुंत श्रावक श्राविकाएं आपके लेनेको गये । ११३ वजे आपका शुभागमन हुआ, आपने मन्दिरमे दर्शन किये। हम लोग नित्य नियमके अनुसार सामायिक करनेके लिये बैठ गये। सामायिकके बाद आये मुनि महाराज भी सामायिकके अनन्तर बाहर तख्तपर उपदेश देने लगे। लोगोंने चर्याके लिए प्रार्थना की। फिर क्या था ? आप कहने लगे कि किसके यहाँ भोजन करें। किसीके शूद्र जलका त्याग है ? दस्सोंके यहाँ भोजन तो नहीं करते ? परस्पर जातियोंमें विवाह तो