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स्वर्णगिरिकी ओर
२४० ही १ घण्टा स्वाध्याय किया। तदनन्तर भोजन कर सामायिक किया और आकाशको निर्मल देख आगेके लिये चल पड़े। बीचमें वस्मी और नहला ग्राममे ठहरते हुए रामपुरा आ गये। यहाँ पर १ घर जैसवाल जैनका है। इनके घरमे १ चैत्यालय है । नीचे मकान है, ऊपर अटारीमे चैत्यालय है। बहुत स्वच्छ है। श्री जीका विम्ब भी निर्मल है। हमारा भोजन इन्हींके घर हुआ। मध्यान्हकी सामायिकके बाद २ मील चल कर १ साधुके स्थान पर ठहर गये। साधु महन्त तो इन्द्रगढ़ गये थे। उनका शिष्य था जो भद्र मनुष्य था। बड़े प्रेमसे स्थान दिया। मुझे अनुभव हुआ कि अन्य साधुओंमें शिष्टता होती है-आतिथ्य सत्कार करनेमें पूर्ण सहयोग करते हैं। जैनधर्म विश्वधर्म है । प्राणीमात्रके कल्याणका कारण है परन्तु उसे आजकलके मनुष्योंने अपना धर्म समझ रक्खा है। किसीको उच्च दृष्टिसे नहीं समझते । धर्म कोई ऐसी वस्तु नहीं जो आत्मासे बाह्य उसका अस्तित्व पाया जावे। वह तो कषायके अभावमे आत्मामे ही व्यक्त होता है।
रामपुरासे चल कर सेंतरी ठहरे और वहाँसे ५ मील चल कर इन्द्रगढ़ आ गये। ग्रामके चारों ओर प्राचीन कोट है। ग्रामके बाहर शीतला देवीका मन्दिर था उसीमे ठहर गये। इन्द्रगढ़से भड़ोल, कैती तथा जुजारपुर ठहरते हुए चैत्र कृष्ण १ सं० २००७ को सोनागिर आ गये। आनेमे विलम्ब हो जानेसे आज पर्वत पर वन्दनाके लिये नहीं जा सके। जनता बहुत एकत्रित थी। सायंकाल सामायिकादि क्रियाके अनन्तर जनता आ गई। पञ्चास्तिकायका स्वाध्याय किया। बहुत ही अपूर्व ग्रन्थ है। इसका प्रमेय बहुत ही उपयोगी है। मूलकर्ता श्री कुन्दकुन्द महाराज हैं। इस ग्रन्थकी वृत्ति श्री अमृतचन्द्र सूरि द्वारा बनाई गई है जिससे मनों अमृत ही टपकता है। चैत्र कृष्ण २ को श्री १०८ विमलसागरजी आये।