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मेरी जीवन गाथा
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त्याग कर दिया। केवल सिंघाड़ा, दूध तथा फल ही लेने लगे। इस समाचारसे समाजमे इस आन्दोलनने जोर पकड़ लिया। कुछ लोग यह कहने लगे कि हरिजनोंको मन्दिर प्रवेशकी आज्ञा मिलनेसे धर्म विरुद्ध काम हो जायगा, क्योंकि जब हरिजनोंको हम अपने घरोंमे नहीं आने देते तब मन्दिरोंमे कैसे आने देंगे उनके आनेसे मन्दिर अशुद्ध हो जावेंगे तथा हमारे धर्मायतनोमें हमारी जो स्वतन्त्रता है उसमे बाधा आने लगेगी एवं अव्यवस्था हो जायगी। हरिजन जब हमारे धर्मके माननेवाले नहीं तव बलात् हमारे मन्दिरोंमे सरकार उन्हे क्यों प्रविष्ट कराना चाहती हैं ? इसके विरुद्ध कुछ लोगोंका यह कहना रहा कि यदि हरिजन शुद्ध और स्वच्छ होकर धार्मिक भावनासे मन्दिर आना चाहते हैं तो उन्हे वाधा नहीं होना चाहिये । मन्दिर कल्याणके स्थान हैं और कल्याणकी भावना लेकर यदि कोई आता है तो उसे रोका क्यों जाय ? इस चर्चाको लेकर एक दिन मैंने कह दिया कि हरिजन संज्ञी पञ्चेद्रिय पर्याप्तक मनुष्य हैं। उनमें सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेकी सामर्थ्य है, सम्यग्दर्शन ही नहीं व्रत धारण करनेकी भी योग्यता है। यदि कदाचित काललब्धि वश उन्हे सम्यग्दर्शन या व्रतकी प्राप्ति हो जाय तब भी क्या वे भगवान्के दशेनस वञ्चित रहे आवेंगे ? समन्तभद्राचार्यने तो सम्यग्दर्शन सम्पन्न चाण्डालको भी देव संज्ञा दी है पर आजके मनुष्य धमकी भ जागृत होने पर भी उसे जिन दर्शन-मन्दिर प्रवेशके अधिकार मानते हैं। मेरे इस वक्तव्यको लेकर समाचार पत्राम प्रतिलेख लिखे गये। अनेकोंको हमारा वक्तव्य पसन्द अ अनेकोंकी समालोचनाका पात्र हुआ पर अपने हृदयका भित्र मैंने प्रकट कर दिया। मेरी तो श्रद्धा है कि संजी पञ्चेद्रिय सम्यग्दर्शनके अधिकारी हैं यह आगम कहता है । सम्यग्दशन
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