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हरिजन मन्दिर प्रवेश
और व्याख्यानसभाओंसे लाभ लेकर एक भी आदमी सुमार्गपर थाना तो मैं उन सब आयोजनोंको सारपूर्ण समझता । लोगोंका ख्याल तो ऐसा हो गया हूँ कि ये सुनानेवाले हैं, कुछ देना लेना तो है नहीं । एक तरहका सिनेमा है पर सिनेमामे तो पैसाका व्यय है, यह मूल्य दृश्य है । मेरे हृदयसे तो यह ध्वनि निकल पड़ी कि -
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जो खुस चाहो मित्र तुम सुख नाही संसार में गल्पवादमें दिन गया भोंदू के भोंदू रहे रात दिना विललात ||
तज दो पर की श्रास | सदा तुम्हारे पास || विषय भोगमें रात ।
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हरिजन मन्दिर प्रवेश
इसी समय समाजमे हरिजन मन्दिर प्रवेश आन्दोलन जोर पकड़ रहा था। अस्पृश्योंके उद्धारकी भावना तो भारत मे बहुत पहले से चली आ रही थी पर अव स्वतन्त्रता प्राप्तिके बाद भारतका जो विधान बना उसमें मनुष्यमात्रको समानाधिकार घोपित किया गया । उसीका आलम्बन लेकर बम्बई प्रान्तकी सरकारने एक कानून ऐसा बनाया कि जिसमें अस्पृश्य लोग भी मन्दिरोंमे जानेसे न रोके जावें । हिन्दू भाईयों के साथ ही साथ यह कानून जैनधर्मावलम्बियों पर भी लागू होता था, अतः वे भी अपने मन्दिरों में अस्पृश्य लोगोंको जानेसे नहीं रोक सकते थे । यदि रोकते तो दण्डके पात्र होते । इस कानूनकी प्रतिक्रिया करने के लिये श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराजने अन्न आहारका