________________
मेरी जीवन गाथा
इनकी प्रकृति अपने से मिलती नहीं । २ घण्टा वाद पं० चन्द्रमौलि - जी आये तव चित्तको संतोष हुआ ।
१४०
1
असौज समाप्त हुआ । कार्तिक वदी १ को सागरसे सिघई कुन्दनलालजी आये । बहुत ही स्नेह जनाया । अन्ततो गत्वा नेत्रोंसे अश्रुपात गये । प्राचीन स्मृति करते-करते वई घण्टा बिता दिये । आपका निरन्तर यही कहना था कि सागर चलिये । वहाँ आपको सर्व प्रकार से शान्ति मिलेगी। मुझे उनकी स्नेह दशा देख ऐसा लगा जैसे इस व्यक्ति के साथ जन्मान्तरका स्नेह हो ! मैंने उनसे यही कहा कि अब सर्व उपद्रवोंका त्याग कर आत्महितमे लगो । स्नेह ही संसार बन्धनका कारण है । हमारा और आपका जीवन भर स्नेह रहा । अव अन्तिम समय है, अतः स्नेह बन्धन तोड़ कर आत्महितकी ओर दृष्टि देना ही श्रेयस्कर है ।
कार्तिक वदी ३ २००६ को लालमन्दिर मे शास्त्रप्रवचन हुआ। श्री पं० शीतलप्रसादजीका भाषण बहुत रोचक हुआ । कुछ हो, जो आनन्द वक्ताको आता है वह श्रोताओंको नहीं आता । वह तो अपनेमे तन्यय हो जाता है । उपदेश देनेकी आचा शान्त होनेपर वक्ताको शान्ति मिलती है । शान्तिका मूल कारण कषायका अभाव है । कषायाग्निके शान्त करनेके लिये आवश्यकता इस बातकी है कि पर पदार्थोंसे सम्बन्ध छोड़ा जावे ।
रोहतक से श्री नानकचन्द्रजी आये । आपके साथ अन्य ४ प्रतिष्ठित व्यक्ति भी थे । आपका श्राग्रह था कि रोहतक चलिये, परन्तु मैंने उत्तर दिया कि विचार पूर्व की ओर जानेका हैं । गिरिराज श्री सम्मेदशिखरजी पर पहुँचनेकी उत्कण्ठा बलवती है। इसलिये वे निराश हो गये । हमारे मनमें बार बार यही भाव आता था कि अब हमे व्यवहार मार्गमें नहीं पड़ना चाहिये । व्यवहार में