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दिल्ली के शेष दिन
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भी मेरी वीतराग धर्म से श्रद्धा को दूर नहीं कर सकते । लोकैषरणाकी मुझे अभिलापा नहीं है । मैंने विचार किया कि अच्छा हुआ एक अभ्यन्तर परिग्रहसे मुक्त हुए ।
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आसोज सुदीमे प्रात काल ७ बजे चलकर ८ बजे न्यू दिल्ली गये । नसिजीमें ठहरे । स्थान रन्य है । यहाँ से एक फलांग दूर पर श्री मन्दिरजी हैं । बहुत ही रम्य मन्दिर है । बीचमे एक वेदिका हैं। उसमें श्रीजिनेन्द्रदेवका विम्व हैं। इसके अतिरिक्त लगभग १०० गजपर दूसरा जिन मन्दिर है जो खण्डेलवालोंका है । बहुत ही रम्य है । चौकमे नीमका वृक्ष है । बहुत ही ठंडा है । स्थान उत्तम है परन्तु धर्म साधन करनेवाला कोई नहीं । यहाँ पर यदि अनुसन्धान विभाग खोला जावे तो उन्नति हो सकती है, परन्तु न तो कोई महापुरुष ऐसा है जो इस कार्यमें उत्साह दिखावे और न कोई करनेवाला है । एक दिन फिर भी यहाँ आये, प्रवचन हुआ, जनता अच्छी थी, प्रायः सर्व अंग्रेजी विद्यामें पटु हैं, साथ ही धार्मिक रुचि अच्छी रखते हैं । हमारे साथ खुले भावोंसे व्यवहार किया तथा यह प्रतिज्ञा ली कि सायंकाल शाख प्रवचन करेंगे ।
एक दिन क्षुल्लक पूर्णसागरजी रुष्ट होकर चले गये । यहाँ पर खलबली मच गई कि वर्गीजीसे रुष्ट होकर चले गये । वर्णीजीने कुछ कहा होगा ऐसा अनुमान लोगोंने लगाया । परन्तु मैंने तो कुछ कहा भी नहीं । संसारकी गति विचित्र है, जो चाहे सो आरोप करे ! इतना अवश्य था कि इनके समागमसे निरन्तर क्लेश रहता था । आप आहारके बाद श्रावकोंसे केन्द्रीय समितिके नामपर प्रेरणा कर दान कराते जिसकी लम्बी चौड़ी स्कीम कुछ समझ मे नहीं आती । क्षुल्लककी वृत्ति तो निःस्पृह है । उसे दान आदि कराकर उसके व्यवस्थापक बनना शोभास्पद नहीं है । वास्तवमें