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दिल्ली के शेप दिन
१४१ पड़ना ही प्रात्मकल्याणका बाधक है। जहाँ परके साथ सम्बन्ध हुप्रा वहीं संसारका पोषक तत्व आगया, उसीका नाम प्रास्त्रव है। ___एक दिन पं० महेन्द्रकुमारजी और पं० फूलचन्द्रजी वनारसवालोका शुभागमन हुआ। कुछ चर्चा हुई। चर्चामें पं० राजेन्द्र कुमारजी तथा स्वामी निजानन्दजी भी थे। कुछ निष्कर्ष न निकला।
आगमका प्रमाण ही सह कहते हैं, किन्तु शान्ति पूर्वक वाक्य विन्यास नहीं होता। विवाद हरिजन समस्याका है। एक पक्ष तो यह करता है कि हरिजन जैन मन्दिरमे प्रवेश नहीं कर सकता और एक कहता है कि भगवान महावीरका यह संदेश है कि प्राणीमात्र धर्मधारणका पात्र है। मुझे इस विवादसे श्रानन्द नहीं आया। आज कलके मानवोंमे सहनशक्ति नहीं, तत्त्वचर्चामें अनापशनाप शब्दोंका प्रयोग करनेमे संकोच नहीं। धर्मको पैतृक सम्पत्ति मान रक्खा है तथा उसमे अन्यको प्रवेश करनेका हक्क नहीं। कुछ समझमें नहीं आता। अस्तु, लोग अपनी अपनी दृष्टिसे ही तो पदार्थको देखते है। मैंने विचार किया कि यद्वा तद्वा मत बोलो, वही बोलो जिससे स्वपरहित हो। यों तो पशु-पक्षी भी बोलते हैं पर उनके बोलनेसे क्या किसीका हित होता है। मनुप्यका बोल बहुंत कठि-- नतासे मिलता है। ___ यहाँ क्षुल्लक चिदानन्दजी भी थे। इन्होंने जैन शास्त्रोंको सस्ते मूल्यमे प्रकाशित करानेके लिए एक सस्ती ग्रन्थमालाका आयोजन किया और उसके द्वारा कई ग्रन्थोंका प्रकाशन भी हुआ । जनताने इस कार्यके लिये द्रव्य भी अच्छा दिया पर कार्य तो व्यवस्थासे • ही स्थायी हो सकता है, भावुकतासे नहीं। मेरे मनमे रह रहकर यही विचार घर करता गया कि परसे संसर्ग करना ही पापका मूल है । जब अन्य द्रव्य स्वाधीन हैं तब परसे सम्बन्ध जोडना ही दुःखका वीज है। अनादिसे आत्माने इसी रोगको अपनाया और