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मेरी जीवन गाथा उससे जो जो दुर्दशा इस जीवकी हुई वह किसीसे गुण नहींसवको अनुभूत है। परका वेदन ही दुर्दशाका मूल कारण है। जिन्हे इन दुर्दशाओंसे अपनेको बचाना है उन्हे उचित है कि इन पर पदार्थोंका सम्पर्क त्याग दें, एकाकी होनेका अभ्यास करें। जहाँ तक मनुष्यकी मनुष्यता पर आंच नहीं आती वहाँ तक पर पदार्थका सम्बन्ध रहे परन्तु निज न माने। मनुष्यता वह वस्तु है जो आत्माको संसार वन्धनसे मुक्त करा देती है। अमानुपता ही संसार दुःखोंकी जननी है । मनुष्य वह जो अपनेको संसारके कारणोंसे सुरक्षित रक्खे । मनुष्य वही है जो कुत्सित परिणामोंसे स्वात्मरक्षा करे । केवल गल्पवादसे आत्माकी शुद्धि नहीं । शुद्धिका कारण निर्दोष दृष्टि है। हे भगवान् । (हे आत्मन् ) तुम भगवान् होकर भी क्यों पतित हो रहे हो ? ___ एक दिन नये मन्दिरमें सतघरेकी कन्या पाठशालाका वार्पिकोत्सव था। चारों क्षुल्लक वहाँ विराजमान थे। २०० छात्रार व महिलाएं उपस्थित थीं। १ कन्याने बहुत जोरदार शब्दोंमे व्याख्यान दिया। सुनकर सर्व जनता प्रसन्न हुई। पूर्णसागर महाराजने २५००) जो उनके पास भारतवर्षकी स्कीमका है उसमेंसे दिया तथा उन्होंने अपील की जिससे ३०००) और भी हो गया।
अमावस्याके दिन वीर निवाणोत्सव था। जनसमुदाय अच्छा था, परन्तु कुछ नहीं निकला और न निकलनेकी संभावना है। वोलना बहुत और काम कुछ न करना यह आजके मानवोंकी बन्तु स्थिति है। गल्पवादसे कुछ क्ल्याण नहीं होता। कर्तव्यबादमे च्युत रहना जिसको उट है वही गल्पवादका रसिक है। अागामी दिन वीरसेवामन्दिरकी कमेटी हुई जिसमें उसके स्थायित्व नया दिल्ली में आने विपय पर विचार हुया ।