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________________ रसायन्धन और पर्यपण "पनी वस्तु देनेका भाव होगा। इस तरह यह किसीका ठीक है कि 'मानामोध प्रभवति माया लोभात्प्रवर्तते अर्थात मानसे क्रोध उत्पन्न होता है और लोभसे माया प्रवृत्त होती है। जब प्रात्मासे क्रोध लोभ भीरुन तथा हास्यकी परिणति दूर हो जाती है तो सत्य वचनमे प्रवृत्ति अपने आप होने लगती है। असत्य बोलनेके कारण दो हैं १ अज्ञान ओर २ कपाय । इनमें अज्ञान मूलक असत्य आत्माका घातक नहीं क्योंकि उसमे परिणाम मलिन नहीं रहते परन्तु. कपाय मृलक असत्य आत्माका घातक है क्योंकि उसमे परिणाम मलिन रहते हैं । जब आत्मासे क्रोधादि कपाय निक्ल गई तव, असत्य बोलनेमे प्रवृत्ति नहीं हो सकती । इन्द्रियोंके विषयोंसे निवृत्ति हो गई यही संयम है यह निवृत्ति तभी हो सकती है जब लोभ कपायकी निवृत्ति हो जाय तथा यह प्रत्यय हो जाय कि आत्मामे मुखकी उत्पत्ति विपयाभिमुखी प्रवृत्तिसे नहीं किन्तु तन्निवृत्तिसे है। मानसिक विपयोंकी निवृत्ति हो जाना-इच्छाओं पर नियन्त्रण हो जाना सो तप है । जव तक मन स्वाधीन नहीं होगा तब तक उसमे इच्छाएँ उठा करेंगी और इच्छाओंक रहते परिणामोंमे स्थिरता स्वप्नमें भी नहीं आ सकती । जब इच्छाएं घट जायेंगी तब उसके फलस्वरूप त्याग स्वतः हो जावेगा। भोजन करते करते जब भोजन विषयक इच्छा दूर हो जाती है तव भोजनके त्याग करनेमे देर नहीं लगती । क्षुधित अवस्थामें यह भाव होता था कि पात्रसे भोजन जल्दी आवे और सुधा विषयक इच्छा दूर हो जानेपर भाव होता है कि कोई बलात् पात्र में भोजन न परोस दे। त्यागके बाद आकिरचन्य दशाका होना स्वाभाविक है । जब पुरातन परिग्रहका त्याग कर दिया और इच्छाके अभावमे नूतन परिग्रह अंगीकृत नहीं किया तव आकिश्चन्य दशा स्वयमेव होनेकी है ही। और जब अपने पास आत्मातिरिक्त किसी पदार्थका अस्तित्व नहीं रहा-उसमे ममता
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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