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दिल्लीका परिकर
१११ चेतना यद्यपि एकरूप है फिर भी वह सामान्य विशेषके भेदसे दर्शन और ज्ञान रूप हो जाती है। जव कि सामान्य और विगेय पदार्थमात्रका स्वरूप है तब चेतना उसका त्याग कैसे कर सकती है ? यदि वह उसे भी छोड़ दे तब तो अपना अस्तित्व भी खो बैठे और इस रूपमें वह जरूप होकर आत्माका भी अन्त कर दे सकती है, इसलिये चेतनाका द्विविध परिणाम होता ही है । हाँ, चेतनाके अतिरिक्त अन्य भाव आत्माके नहीं हैं। इसका यह अर्थ नहीं समझने लगना कि आत्मामे सुख वीर्य आदि गुण नहीं हैं। उसमे तो अनन्त गुण विद्यमान हैं और हमेशा रहेगे, परन्तु अपना और उन सवका परिचायक होनेसे मुख्यता चेतनाको ही दी जाती है। जिस प्रकार पुद्गलमे रूप रसादि गुण अपनी अपनी सत्ता लिये हुए विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार आत्मामे भी ज्ञान दर्शन आदि अनेक गुण अपनी अपनी सत्ता लिये हुए विद्यमान रहते हैं। इस प्रकार चेतनातिरिक्त पदार्थोंको पर रूप जानता हुआ ऐसा कौन बुद्धिमान है जो कहे कि ये मेरे हैं। शुद्ध आत्माको जाननेवालेले ये भाव तो कदापि नहीं हो सकते । . जो चोरी आदि अपराध करता है वह शंकित होकर घूमता है । उसे हमेशा शङ्का रहती है कि कोई मुझे चोर जान कर बांध न ले, पर जो अपराध नहीं करता है वह सर्वत्र निःशङ्क होकर घूमता है । 'मैं बाँधा न जाऊँ' इस प्रकारकी चिन्ता ही उसे उत्पन्न नहीं होती। इसी प्रकार जो आत्मा परभावोंको ग्रहणकर चोर वनता है वह हमेशा शङ्कित ही रहेगा और संसारके बन्धनमे बॅधे गा। सिद्धिका न होना अपराध है। अपराधी मनुष्य सदा शङ्कित रहता है, अतः यदि निरपराधी बनना है तो आत्माकी सिद्धि करो। आत्मासे परभावोंको जुदा करो । अमृतचन्द्र स्वामी कहते है कि मोक्षार्थी पुरुपोंको सदा इस सिद्धान्तकी सेवा करना