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पर्व प्रवचनावली
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व्यर्थ ही सुखी दुखी होता है । जिसे यह सुख समझता है वह सुख नहीं है । वह ऊंचाई नहीं जहां से फिर पतन हो । वह सुख नहीं जहां फिर दुखकी प्राप्ति हो । यह वैषयिक सुख पराधीन है, वाधा सहित है, उतने पर भी नष्ट हो जानेवाला है और आगामी दुःखका कारण है। कौन समझदार इसे सुख कहेगा ? इस शरीर से आप स्नेह करते हैं पर इस शरीरमें है क्या ? आप ही बताओ माता पिताके रजवीर्यसे इसकी उत्पत्ति हुई। यह हड्डी, मास, रुधिर आदिका स्थान है । उसीकी फुलवारी है । यह मनुष्य पर्याय साटेके समान है। सांटेकी जड़ तो सड़ी होनेसे फेंक दी जाती हैं, वांड़ भी वेकास होता है और मध्य में कीड़ा लग जानेसे वेस्वाद हो जाता है । इसी प्रकार इस मनुष्यकी वृद्ध अवस्था शरीर शिथिल हो जाने से बेकार है । बाल अवस्था अज्ञानीकी अवस्था है। और मध्यदशा अनेक रोग संकटोंसे भरी हुई है । उसमे कितने भग भोगे जा सकेंगे ? पर यह जीव अपनी हीरा सी पर्याय व्यर्थ ही खो देता है। जिस प्रकार बातकी व्याधिसे मनुष्य के दुख लगते हैं । कषायसे—विपयेच्छासे इसकी आत्माका प्रत्येक प्रदेश दुखी हो रहा है । यह दूसरे पदार्थको जब तक अपना समझता है तभी तक उसे अपनाये रहता है । उसकी रक्षा आदिमे व्यग्र रहता है पर ज्यो ही उसे परमें परकीय बुद्धि हो जाती है, उसका त्याग करनेमें उसे देर नहीं लगती। एक बार एक धोबीके यहाँ दो मनुष्योंने कपड़े धुलानेको दिये। दोनोंके कपड़े एक समान थे, धोबी भूल गया, वह बदल कर दूसरेका कपड़ा दूसरेको दे आया । एक खास परीक्षा किये बिना दुपट्टाको अपना समझ ओढ़ कर सो गया पर दूसरेने परीक्षा की तो उसे अपना दुपट्टा वदला हुआ मालूम हुआ । उसने धोवीसे कहा | धोबीने गलती स्वीकार कर उसका कारण बतलाया और भटसे उस सोते हुए मनुष्य के दुपट्ट े का अंचल