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इंटर कालेजका उपक्रम
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द्वारा व्यर्थ ही विता दिया । अनादि कालसे जो पर्याय पाई उसीमें अपनत्वकी कल्पना कर ली । यद्यपि यह मनुष्य पर्याय असमान जातीय पुद्गल और जीवके सम्बन्धसे उत्पन्न है तो भी मोहजन्य विडम्वनाके कारण मैं अपने स्वरूपको न जान इस संयोगज पर्याय को अपनी मानता रहा । कभी अपनेको ब्राह्मणादिक माना, कभी आश्रमवासी माना, कभी किसी रूप माना और कभी किसी रूप | परन्तु इन सबसे परे जो आत्मा शुद्ध-विविक्त जात्यजाम्बूनदवत् उज्वल स्वरूप है उसकी ओर दृष्टि नहीं दी ।
न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः । संगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव ॥
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वास्तवमे विचारकर देखा जावे तो आत्मा न ब्राह्मण है, क्षत्रिय है, न वैश्य है, न शूद्र है और न किसी ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी आश्रमका धारक है । यह सब तो शरीर के धर्म हैं - शरीरकी अवस्थायें हैं । इन रूप आत्माको मानना मोहका विलास है । 'यह मैं हूँ' इत्यादि अहंकार ममकार के द्वारा उगाया गया चेतनाके विलास से परिपूर्ण जो आत्मा उसके व्यवहारसे च्युत होकर अन्य कार्योंमे उलझ रहा हूँ ।
शान्तिसे पर्वके दिन व्यतीत हुए । पर्वके अनन्तर जयन्ती उत्सवका आयोजन हुआ जिसमें बाहरसे श्री पं० बंशीधरजी इन्दौर, पं० राजेन्द्रकुमारजी दिल्ली, पं० दयाचन्द्रजी सागर, पं० पन्ना लालजी साहित्याचार्य सागर आदि विद्वान् भी पधारे । सागर तथा अन्य अनेक स्थानोंसे महानुभाव आये । मुझे क्षेत्र से जुलूस द्वारा नगरमे ले जाया गया । वहाँ जयन्ती उत्सव हुआ । मैन शिर झुका कर श्रद्धाञ्जलिके शब्द सुने । अन्तमे जब मेरे कहने का अवसर आया तब मैंने कहा कि संस्कृतमे एक श्लोक है ।