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मेरी जीवन गाथा उसे कोट्यधीश नहीं कहने देती। इसी प्रकार अनन्त संसारका अभाव होने पर भी अभी उस जीवको हम सर्वज्ञ-केवली नहीं कह सकते। कहनेका तात्पर्य यह है कि जब जीवके सम्यग्दर्शन हो जाता है उस समय उसकी आत्मामें जो शान्ति आती है उसका अनुभव उसी आत्माको है अन्य कोई क्या उसका निरूपण करेगा ? इतना होने पर भी यदि वह अन्तरङ्गसे खिन्न रहता है तो मेरी बुद्धिमें तो उसे सम्यग्दर्शन नहीं हुआ । व्यर्थ ही व्रती वननेका मान करता है । मोक्षमार्गमें जो कुछ कला है इसी सम्यग्दर्शनकी है । विवाहमें मुख्यता वरकी है वरातियोंकी नहीं। यदि वह चगा है तो सर्व परिकर सानन्द है । इसके असद्भावमें सर्व परिकरका कोई मूल्य नहीं अतः हम जो रात्रि दिनशान्तिके अर्थ रुदन करते हैं उस रुदनको छोड़ देना चाहिये, क्योंकि हम लोगोंकी जैनधर्ममें अकाट्य श्रद्धा है । शेष त्रुटि दूर करनेके अर्थ पुरुषार्थ करना चाहिये । मेरा तो यह विश्वास है कि यदि धर्ममें हमारी रुचि है तो अवश्य ही हम मोक्षमार्गके पात्र हैं। श्री समन्तभद्रस्वामीने कहा है कि सम्यक्त्रके समान श्रेयस्कर और मिथ्यात्वके समान अश्रेयस्कर अन्य नहीं। अस्तु इस विषयमे विवाद न कर निरन्तर शान्तभावोंका उपार्जन करो।मनमें यही विचार आया कि-गल्पवाद मत करो, सहसा उत्तर मत दो, हठ मत करो किसीको अनिष्ट मत बोलो, जो उचित वात हो उसके कहनेमें संकोच मत करो, आगमके प्रतिकूल मत चलो। न धमें वाह्य चेष्टामे है और न अधर्म, उसका तो सीधा सम्बन्ध आत्मासे है। आत्माकी सत्ताका अनुमापक सुख दुःखका अनुभव है तथा प्रत्यभिज्ञान भी आत्माकी नित्यतामें कारण है, प्रत्येक मनुष्य सुखकी अभिलापा करता है।
इसी विचार निमग्नदशामें चल कर बुलन्दशहरसे ८ मील आये और १ धर्मशालामें ठहर गये। यहाँसे ९ मील चल कर