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________________ ३१० मेरी जीवन गाथा व्यवस्थापकोंको इस रीतिसे विवश होकर द्रव्य एकत्र करना पड़ता है। यथार्थमें तीर्थस्थान धर्मसाधनके आयतन थे। यहाँ आकर मन्द कषाय होती थी। जो कोई स्वाध्यायमें शंका होती थी वह पण्डितोंके द्वारा निणींत हो जाती थी तथा नवीन पदार्थ श्रवणमे आते थे। कई त्यागीमहाशय मेलामे आते थे। उन्हें पात्रदान देनेका अवसर मिलता था। एक दूसरेको देखकर जो कुछ अपने चारित्रमें शिथिलता होती थी । वह दूर हो जाती थी । कई महानुभाव व्रतादिक ग्रहण करते थे। परस्परके कई मनोमालिन्य मिट जाते थे। इसके सिवाय लौकिक कार्य भी बहुतसे बन जाते थे परन्तु अब आज कल मेला इस वास्ते होता है कि जनतासे रुपया श्रावे । सभामे १५ मिनट भी धामिक व्याख्यानके लिये अवसर नहीं मिलता। रूपयेकी अपील होने लगती है। यह भी होता, कोई हानि नहीं थी किन्तु विद्यालयको छोड़ क्षेत्रकी व्यवस्थाका कुछ दिग्दर्शन कराके उसके अर्थ द्रव्य संचय करनेकी अपील होने लगती है। वीचमे कई दुर्दशापान व्यक्ति आजाते हैं जो वीच वीचमे तंग करते रहते हैं। ___ मन्दिरोंके पास ही अहार नामका छोटा सा गाँव है। २ घर जैनियोंके हैं। एक दिन पं० गोविन्ददासजीके यहाँ आहार हुआ। मेला सानन्द हुआ। मथुरासे पं० दयाचन्द्रजी व भैयालालजी भजनसागर आये थे। ये लोग जहाँ जाते हैं वहाँ व्याख्यानों द्वारा जनताको प्रसन्न कर लेते हैं। मेलामे २००० हजार जनता आई होगी। प्रबन्ध अच्छा था । यहाँपर पाठशालाम २० छात्र अध्ययन करते हैं। पं० प्रेमचन्द्रजी पं० गोविन्ददासजी तथा पं० मौजी. लालजी योग्य व्यक्ति हैं।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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