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છપર
मेरी जीवन गाथा अन्तरङ्गसे मिलना कठिन है। यहाँ एक महानुभावने पूछा कि कल्याण किस प्रकार हो सकता है ? मैंने कहा-इसके लिये अधिक प्रयासकी आवश्यकता नहीं, यह कार्य तो अत्यन्त सरल है । मेरा उत्तर सुनकर वह आश्चर्यमें पड़ गया तथा कहने लगा कि यह कैसे ? मैंने कहा कि इसमें आश्चर्यकी वात क्या है ? वर्तमानमें जो तुम्हारी अवस्था है वह कैसी है ? इसका उत्तर दो। उसने कहा कि दुःखमय है। मैंने पूछा कि दुःखमय क्यों है ? उसने उत्तर दिया कि आकुलताकी जननी है। तब मैंने कहा कि अब किसीसे पूछनेकी आवश्यकता नहीं, तुम्हारा कल्याण तुम्हारे
आधीन है। जिन कारणोंसे दुःख होता है उन्हें त्याग दो, कल्याण निश्चित है। एक आदमी सूर्य आतापमे बैठकर गर्मीके दुःखसे दुखी हो रहा है। यदि वह आतापसे हटकर छायामें बैठ जाय तो अनायास ही उसका दुःख दूर हो सकता है। दुःख इस बातका है कि हम लोग सुख दुःख आदि प्रत्येक कार्यमै परमुखापेक्षी वनकर स्वकीय शक्तिको भूल गये हैं।
यहाँ वाचनालय खोलनेके लिये लोगोंने कहा । मैंने उत्तर दिया कि खोलिये, आपकी सामर्थ्यके वाहरका कार्य नहीं। आप जितना खर्च अपने भोजनाच्छादनादिमें करते हैं उस पर प्रति स्पया । एक पैसा एक पेटीमें डालते जाइये । सममिये हमारा एक पैसा अधिक खर्च हो गया है। इस विधिसे आपके पास कुछ समयमे इतना द्रव्य एकत्रित हो जायगा कि उससे आप वाचनालय क्या बड़ा भारी सरस्वती भवन भी खोल सकेंगे। सवने यह कार्य ३ वर्षक लिये स्वीकृत किया। एक दिन राजपुरसे व्योतिप्रसाद शीलचन्द्रजी
आये। आप बहुत ही सज्जन तथा उदार हैं। आपके धार्मिक विचार हैं। यहाँ ५ दिन लग गये।
एकादशीको प्रातःकाल ४३ मील चलकर बुहा ग्राममे ठहर