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________________ सागर ३२५ समगौरयाजी, भजनसागरजी तथा पं दयाचन्द्रजीने सबको मधुर शब्दोंमे धन्यवाद दिया और सिंघई लक्ष्मणप्रसादजी हरदीवालोंने सिंघई पदका तिलक किया तथा सब भाईयोंने भेंट की। बड़ा आनन्द रहा। अमावास्याके दिन पण्डालमे श्रीमान् ब्रह्मचारी कस्तूरचन्द्रजी नायक जबलपुरवालोंने स्वरचित रामायणमेसे दशरथ वैराग्यका प्रकरण जनताको श्रवण कराया। श्रवण कर जनता बहुत प्रसन्न हुई। मेरे चित्तमें बहुत उदासीनता आई परन्तु स्थायी शान्ति न आई। इसका मूल कारण भीतरकी दुर्बलता है। अनादि कालसे परमे निजत्वकी कल्पना चली आ रही है। उसका निकलना सहज नहीं । संसार स्थिति अल्प रह जाय तो यह कार्य अनायास हो सकता है। कलशारोहणका समारोह समाप्त हो गया। लोग अपने अपने घर गये और हम शान्त भावसे १६-१७ दिन यहाँ रहे। भगवानदास भायजी तत्त्वज्ञ तथा आसन्न भव्य पुरुष हैं। इनके साथ स्वाध्याय करते हुए शान्तिसे समय यापन किया। चैत्र कृष्णा प्रतिपदा सं० २००८ के दिन सागरसे सिंघईजी आदि आये और सागर चलनेकी प्रेरणा करने लगे। हमने मना किया परन्तु अन्तमे मोहकी विजय हुई, हम पराजित हुए। सागर जाना स्वीकृत करना पड़ा। मुझे अनुभव हुआ कि संकोची मनुष्य सदा दुखी रहता है। सवको खुश करना असंभव वात है। प्रथम तो कोई ऐसा उपाय नहीं जो सबको प्रसन्न कर सके। द्वितीय सबकी एक सच्श भावना करना कठिन है। अतः एक यही उपाय है कि सबको खुश करनेकी अभिलाषा त्याग दी जाय । अभिलापा ही दुखदायिनी है। चैत्र कृष्णा ३ सं० २००८ को १ बजे शाहपुरसे चले। धर्मशालासे चल कर श्री अनन्दीलालकी दुकान पर विश्राम
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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