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मेरी जीवन गाया
प्रवृत्ति कुक्कुरके समान है अर्थात् जिस प्रकार कुक्कुरको कोई
लाठी मारे तो वह लाठीको चबाने लगता है। मारनेवालेसे कुछ नहीं कहता इसी प्रकार किसीके द्वारा इष्ट या अनिष्ट होने पर मिथ्यादृष्टि उस पर राग द्वेष करता है । उस इष्ट या अनिष्टका मूल कारण जो कर्मोदय है उस पर दृष्टि नहीं देता ।
श्रावण शुक्ल ४ सं० २००८ को पं० फूलचन्द्रजीका प्रवचन बहुत मनोहर हुआ | आपने कहा कि आत्माको संसारमें रखनेवाली यदि कोई वस्तु है तो पराधीनता है और ससारसे पार करनेवाली कोई वस्तु है तो स्वाधीनता है । हम स्वतन्त्र चैतन्य पुञ्ज आत्मद्रव्य हैं । हमारा आत्मद्रव्य अपने आपमे परिपूर्ण है । उसे परकी सहायताकी अपेक्षा नहीं है । फिर भी यह जीव अपनी शक्तिको न समझ पद पद पर पर द्रव्यके साहाय्यकी अपेक्षा करता है और सोचता है कि इसके विना हमारा काम नहीं चल सकता । यही इसकी पराधीनताहै । जिस समय परकी सहायताकी अपेक्षा छूट जावेगी उस दिन मुक्ति होने में देर न लगेगी । अविवेकी मनुष्य, स्त्री पुत्रादिकको अपना हितकारी समझकर उनमें राग करता हैं परन्तु विवेकी मनुष्य 'सममता है कि यह स्त्री पुत्रादिका परिकर संसारचक्रमें फसानेवाला है इसलिये उसमे तटस्थ रहता है । मनुष्य पुत्रको बहुत प्रेमकी दृष्टिसे देखते हैं किन्तु यथार्थ बात इसके विपरीत है । मनुष्य सबसे अधिक प्रेम स्वखीसे रखता है । इसीसे उसने स्त्रीका नाम प्राणप्रिया रक्खा है । स्त्री भी इसकी आज्ञाकारिणी रहती हैं । वह प्रथम पतिको भोजन कराती है पश्चात् आप भोजन करती है । पहले पतिको शयन कराती है । पश्चात् आप शयन करती है । उसकी वैयावृत्त्य करनेमें किसी प्रकारका संकोच नहीं करती । यह सब है परन्तु पुत्रके होने पर यह बात नहीं रहती ।
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