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दिल्लीकी ओर
वास्तवसे आभ्यन्तर मोहकी परिणति इतनी प्रबल है कि इसके प्रभावमें आकर कुछ भी रागांशका त्यागना कठिन है। वाह्य रूपादि विपयोंका त्याग तो प्रत्येक मनुष्य कर सकता है, किन्तु आभ्यन्तर त्याग करना अति कठिन है।
आषाढ़ सुदी ८ सं० २००६ को राजकृष्णजीके बागसे ३ मील चलकर यमुना पुलके १ फाग बाद लोगोंने विश्राम लिवाया। तदनन्तर एक विशाल जुलूसके साथ १ मील चलकर लाल मन्दिरमें आ गये। जनता बहुत थी फिर भी प्रवन्ध सराहनीय था। यहीं पर लाल मन्दिरकी पञ्चायतने अभिनन्दन पत्र श्रीमान् पं० मक्खनलालजीके द्वारा समर्पित किया। मैंने भी अपना अभिप्राय जनताके समक्ष व्यक्त किया। मेरा अभिप्राय यह था कि त्यागसे ही कल्याणमार्ग सुलभ है। त्यागके बिना यह जीव चतुर्गतिरूप संसारमें अनादिकालसे भ्रमण कर रहा है आदि । यहाँसे १ मील चलकर अनाथाश्रमके भवनमे ठहर गया। मुरारसे लेकर यहाँ तक ७ माहके निरन्तर परिभ्रमणसे शरीर शान्त हो गया था तथा चित्त भी क्लान्त हो चुका था, इसलिये यहाँ इस मञ्जिल पर
आते ही ऐसा जान पड़ा मानों भार उतर गया हो। पं० चन्द्रमौलिने मुरारसे लेकर देहली तक साथ रहकर सब प्रकारकी व्यवस्था बनाये रक्खी ।
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