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मेरठ थी। एक दिन आप मन्दिरमे गये तो आपकी माला टूट गई। तब आपने नियम लिया कि अब तो मन्दिरसे तब ही प्रस्थान करेंगे जब माला पोलेंगे या यहीं संन्यास धारण करेंगे। लोगोंने बहुत समझाया परन्तु आपने किसीकी शिक्षा नहीं मानी । २ दिन हुए कि आपको लघुशंकाकी वाधा हुई । उसके निवृत्त्यर्थ आप मन्दिरसे निकले परन्तु निकलते समय आपके शिरमें पत्थरकी चौखटका आघात लगा
और मस्तकसे रुधिरधार बहने लगी। मालीने जलसे धोया शिरका विकृत भाग निकल जानेसे आपको दिखने लगा। इस घटनासे आपने गृह जानेका त्याग कर दिया और क्षुल्लक दीक्षा अंगीकार कर ली। आप प्रसिद्ध तुल्लक हुए। १५-१५ दिन तकके उपवास करनेमे आप समर्थ थे। आप धर्मप्रचारक भी अच्छे थे । वीसों स्थानों पर आपने जिन मन्दिर निर्माण कराये, अनेकोंको माँस भक्षणका त्याग कराया और अनेकोंको मन्दिरमार्गी बनाया। जिसके पीछे पड़ जाते थे उसे कुछ न कुछ त्याग करना ही पड़ता था। आपकी तपस्याका प्रभाव अनेक व्यक्तियों पर पड़ता था। आप यदि विद्वान होते तो कई विद्यालय स्थापित करा जाते परन्तु उस ओर आपकी दृष्टि न गई, फिर भी आपने जैनधर्मका महान् उपकार किया, स्वयं निर्दोष चारित्र पालन किया, औरोंको भी पालन करानेका पूर्ण शक्तिसे प्रचार किया। एक बारकी वात है कि आप सिंहपुरीकी यात्राको गये थे और मैं भी वहाँके दर्शनके लिये गया था। आपके दर्शनका आकस्मिक लाभ हो गया। मैंने सविनय आपको प्रणाम किया। फिर क्या था ? आप कहते हैं-कौन हो ? मैंने उत्तर दिया छात्र हूँ। आपने कहा-कहाँ अध्ययन करते हो ? मैंने कहा-स्याद्वाद विद्यालयमें । आपने प्रश्न किया कुछ त्याग कर सकते हो ? मैंने विचार किया हम छात्र हैं, अतः क्या त्याग कर सकते हैं हमारे पास कुछ द्रव्य तो