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५२.
मेरी जीवन गाया है नहीं। फिर भी जो बनेगा १ आना २ आने किसी गरीवको दे देवेंगे । इस विचारके अनन्तर मैंने सहर्ष स्वीकृत किया किकर सकते हैं । अच्छा महाराज बोले- तुमको भोजनमें सबसे प्रिय शाक कौनसा है ? मैंने कहा-महाराज! आपने कहा था कुछ त्याग कर सकते हो, मैंने समझा-कुछ पैसेका त्याग महाराज करावेंगे पर आप तो पूछते हैं भोजनमे कौनसा प्रिय शाक है ? महाराज ! मुझे सबसे प्रिय शाक भिण्डी है। सुन कर महाराज वोले-इसीको त्यागो । मैं वोला-महाराज | यह कैसे होगा ? क्योंकि यह तो मुझे अत्यन्त प्रिय है। महाराज बोलेतूने स्वयं कहा था कि त्याग कर सकते हैं। मैंने कहा-महाराज भूल हुई क्षमा करो । महाराज बोले-भूलका फल तो तुम्हें भोगना ही पड़ेगा। मैंने कहा - महाराज ! जो आज्ञा, कब तकके लिये छोड़ ? महाराज वोले-तेरी इच्छा पर निर्भर है। मैं बोला-महाराज ! मैं मोही जीव हूं, आपही वतावें । महाराजने कहा-जो तेरी इच्छा सो वोल । मैंने कहा- जव तक बनारस भोजनालयमे नहीं पहुंचा तब तक त्याग है। महाराज बोलेवेटा! हम समझ गये परन्तु ऐसी दम्भिता सुखकारी नहीं। ज्ञानार्जनका यह फल नहीं कि छलसे काम निकाल लो। यही दोप वर्तमानके वातावरणमे हो गया है कि हर वातमे कुतर्कसे काम निकालते हैं। हम तुमको छात्र जान तुम्हारे हितकी बात कहते हैं जो मनमे हो सो कहो। देखो, यदि भिण्डीका शाक छोडना इष्ट नहीं था तो हमसे कह देते-महाराज, मैं नहीं छोड़ सकतायही सीधा उत्तर देना था। अस्तु, छलसे काम न करना। मैने महाराजसे कहा-१० मासको त्याग दिया। महाराज प्रसन्न हुए, कहने लगे-प्रसन्न रहो, कल्याणके पात्र होश्रो । महाराजका अन्तिम उपदेश तो यह था कि यदि कल्याण नामका