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. . मेरठ । कोई पदार्थ है तो उसका पात्र त्यागी ही हो सकता है। अन्य कथा छोड़ो जो हिंसक हैं, विषयी हैं, व्यसनी है उन्हे भी जो सुख होता है वह त्यागसे ही होता है । जैसे हिंसक “मनुष्यके यह भाव हुए कि अमुक प्राणीकी हिंसा करूं। अब वह जब तक उस प्राणीका घात न करे तवतक निरन्तर खिन्न और दुखी रहता है। अब उसकी खिन्नता जानेके दो ही उपाय हैं-या तो अपनी इच्छाके अनुसार उस प्राणीका घात हो जावे या वह इच्छा त्याग दी जावे । यहाँ फलस्वरूप यही सिद्धान्त तो अन्तमे आया कि सुखका कारण त्याग ही हुआ। हम उस ओर दृष्टि न दें यह अन्य कथा है। विषयी मनुष्य जब विषय कर लेता है तभी तो प्रसन्न होता है। इसका यही अर्थ तो हुआ कि उसे जो विषयेच्छा थी वह निवृत्त हो गई। मेरा ही यह विश्वास है सो नहीं, प्राणीमात्रको ही यही मानना पड़ेगा कि त्यागमें ही कल्याण है।
कल्याणका बाधक कर्म है और यह कर्म उदयमें विकृति देकर ही खिरता है। उस समय जो औदयिक विकृति होती है वही फिर नवीन बंध वाँधनेका कारण हो जाती है । यही संतति हमारी आत्माको आत्मोन्मुख नहीं होने देती। यही हमारी महती अज्ञानता है। जब तक हमारी असंज्ञी अवस्था थी तब तक तो हमको हेयोपादेयका बोध ही न था। पर्याय मात्रको आपा मान पर्याय ही में आहारादि संज्ञाओं द्वारा मग्न रहते थे परन्तु अव तो संज्ञीपनाको प्राप्त हो हेयोपादेयके जाननेके पात्र हुए हैं। अब भी यदि निजकी ओर लक्ष्य न दिया तो हमारा सा अपात्र कौन होगा ? हमको यह बोध है कि हम जो हैं वह शरीर नहीं है। शरीर पुद्गल परमाणुओंका पिण्ड है। अनादिकालसे विभाव परिणतिके कारण इन दोनोंका बन्ध हो रहा है और