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दिल्लीका ऐतिहासिक महत्त्व और राजा हरसुखराय १०३
देवका बौद्धाचार्यके साथ राजसभा में शास्त्रार्थ तथा भगवान् जिनेन्द्र के समवसरणका दृश्य । ऊपर मानतुगाचार्य के भक्तामर स्तोत्रके ४८ काव्योंको सुत्रर्णाक्षरोंमे अंकित किया गया है। साथ ही उनकी सिद्धि तथा ऋद्धिमन्त्रोंको भी स्पष्ट रूपसे चित्रित किया है । तीर्थों मे पावापुरी, चम्पापुरी, मन्दारगिरि और मुक्तागिरिके चित्र अंकित हैं। ऊपर अनेक देवगण अपने अपने बाद्योंको लिये हुए दिखलाये गये हैं 1 मूल वेदीके अतिरिक्त अन्य ३ वेदियाँ भी पीछे चलकर यहाँ बनवाई गई हैं जिनपर प्राचीन एवं नवीन मूर्तियाँ विराजमान हैं । इन मूर्तियोंमे स्फटिक, नीलम और मरकतकी मूर्तियाँ भी विद्य मान हैं । कुछ मूर्तियाँ तो १११२ तथा ११५३ वि० सं० तककी प्रतिष्ठित हैं। चौकेके वांई ओर दहलानमे चारों ओर सुवर्णाक्षरों में आचार्य कुमुदचन्द्रका कल्याणमन्दिर स्तोत्र अङ्कित है और वगलवाले कमरामे विशाल सरस्वती भवन है । सरस्वती भवनमे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी आदिके १८०० के लगभग हस्त लिखित ग्रन्थ हैं तथा २०० के लगभग हिन्दी संस्कृतके गुटकों का भी संकलन है । इन ग्रन्थोंमें सबसे प्राचीन ग्रन्थ १४=६ वि० सं० का लिखा हुआ है । ५०० से अधिक मुद्रित ग्रन्थ भी संगृहीत हैं ।
यहाँ चौकके सामनेवाली दहलानमे शास्त्रसभा होती है । यह सभा अपने ठगकी एक ही है । यही सभा लाला हरसुखराय तथा लाला सगुनचन्द्र के समय सगुनचन्द्रशैली के नाम से प्रसिद्ध थी । संवत् १८८१ मे जयपुरके विद्वान् पं० मन्नालाल जी, अमर चन्द्रजी दीवानके साथ हस्तिनागपुरकी यात्राको गये थे । यात्रा कर जब वापिस दिल्ली आये तब लाला सगुनचन्द्रजीने चातुर्मास में दिल्ली ठहरा लिया और उनसे शास्त्र प्रवचन सुना । साथ ही लालाजीने उनसे राजा चामुण्डरायके चारित्रसारकी हिन्दी टीका करनेकी प्रेरणा की जिसे उन्होंने वि० सं० १८८१ में बनाकर पूर्ण की