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मुरारसे आगरा
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धर्मशालासे चलकर एक छोटे ग्राममे पहुंच गया। इस ग्राममें ठहरनेका कोई स्थान न था तब वहाँ जो गृहस्थ था उसने अपने निवासको खाली कर दिया और कहा कि सानन्द ठहर जाइये, कोई संकोच न करिये तथा दुग्धादि पान करिये । हमने कहा हम लोग रात्रिको दुग्धादि पान नहीं करते। यह सुनकर वह वहत प्रसन्न हुआ। सानन्द ठहराया, धान्यका घास विछाने को दिया। सुखसे रात्रि बिताई। यहाँसे ६ मील चलकर एक ग्राममें ठहर गये। यहाँका कूप ७० हाथ गहरा था, पानी अति स्वादिष्ट था। यहाँसे भोजन कर चार मील चलनेके वाद चम्बल नदीके तट पर आगये । यहाँ श्रीमान् प्यारेलाल जी भगतके आनेसे बहुत ही प्रमोद हुआ। आपसे संलाप करते करते ४३ वजे धौलपुर पहुंच गये। आगरासे सेठ मटरूमल जी रईस भी आ गये। शिष्टाचारसे सम्मेलन हुआ। मन्दिरमें प्रवचन हुआ जो जनता थी वह आ गई । मनुप्यों की प्रवृत्ति सरल है। जैनी हैं यह अवश्य है परन्तु ग्रामवासी हैं, अतः जैनधर्मका स्वरूप नहीं समझते । यहाँके राजा बहुत ही सज्जन हैं। वन में जाते हैं और रोटी आदि लेकर पशुओको खिलाते हैं। राजाके पहुंचने पर पशु स्वयमेव उनके पास आ जाते हैं। देखो दयाकी महिमा कि पशु भी अपने हितकारीको समझ लेते हैं। यदि हम लोग दया करना सीख लें तो करसे कर जीव भी शान्त हो सकता है। परन्तु हमने निजको महान् मान नाना अनर्थ करनेका ही अभ्यास कर रक्खा है। पशु कितनी ही दुष्ट प्रकृतिका होगा परन्तु अपने पुत्रकी रक्षाके लिये प्राण देनेमें पीछा नहीं करेगा। मनुप्यामे यह बात नहीं देखी जाती। यदि यह मनुष्य अपने स्वरूपका अवलोकन करे तो पशुओंकी अपेक्षा अनन्त प्राणियों का कल्याण कर सकता है। मोक्षमार्गका उदय इसी मनुष्य