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मेरी जीवन गाथा इस जीवको भय लगा रहता है : कि मर न जाऊँ यह पर्याय छूट न जाय। मैथुन संज्ञामें विषय रमणकी उच्छा होती है। विषयेच्छासे जो अनर्थ होते हैं वे किसीसे गुप्त नहीं। यह विषय लिप्सा इतनी भयंकर है कि यदि इसकी पूर्ति न हो तो यह प्राणी मृत्यु तकका पात्र हो जाता है। इसका लोभी मनुष्य निन्द्यसे निन्द्य कार्य करनेमे भी सकोच नहीं करता। यहाँ तक देखा गया है कि पिताका सम्बन्ध साक्षात् पुत्रीसे होगया। उत्तमसे उत्तम राजपत्नी नीचोंके साथ संसर्ग करनेमें संकोच नहीं करती। जिसने इस संज्ञापर विजय प्राप्त करली वही महापुरुप है। वैसे तो सभी उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। परिग्रहकी संज्ञा भी इस जीव को उन्मत्त वना रही है। आज कल तो मनुष्य इसके पीछे पागल होकर पड़ा है। त्यागी, व्रती, विद्वान, अविद्वान जो देखो वही इसके पीछे चक्र लगा रहा है। सागारधमामृनके प्रारम्भमें ही पं० आशाधरजी ने सागारका लक्षण लिखते हुए कहा है कि जो उक्त चार संजारूपी बरसे आतुर हैं, जिम प्रकार ज्वराक्रान्त मनुष्य दुखी हो जाते हैं उसी प्रकार उन संज्ञानी के द्वारा जो दुखी होरहे हैं और इनसे दुःखी होनेके कारण जी निरन्तर स्वज्ञान-प्रात्मनानसे विमुख रहते हैं, उन 'मंगायों की चपेट से जो यह विचार भी नहीं कर पाते कि मेरा म्ब क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? और इमी कारण जो विपयोंम उन्मुप रहते हैं उन्हें ही सुखका कारण मान रात दिन उन पत्रित करनेमें लीन रहते हैं व सागार कहलाते हैं। इन मंगायोगदारण भी पं० श्राशाधरजी ने उसी श्लोकमे बता दिया है, "प्रनागरिता दोपोत्थ' अर्थात् 'प्रनादि कालीन मियानानरूपी नापमिलना हैं। जिस प्रकार चर यात पिन कफ उन दोगमं उत्पन उसी प्रकार चार संचारूपी ज्वर मिथ्याशनापी दोरी ?