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________________ २८५ क्षेत्रपालमें चातुर्मास हुआ है। परमार्थसे पं० आशाधरजी ने सागारका जो लक्षण दिखाया है वह गृहस्थोंमे पूर्ण रूपसे घटित हो रहा है । उन्होंने प्रथम श्लोकमे मोही-मिथ्यादृष्टि गृहस्थका लक्षण बतलाया है. और उसके अनन्तर दूसरे श्लोकमे सम्यग्दृष्टि गृहस्थका लक्षण बतलाया है। सम्यग्दर्शनके होनेसे जिसे आत्माका भान तो हो गया है परन्तु चारित्रमोहके उदयसे जो परिग्रह संज्ञाका परित्याग करनेमे समर्थ नहीं है और उसी कारण जो प्रायः विषयोंमे मूच्छित रहते हैं। मिथ्यादृष्टि गृहस्थ तो निरन्तर विपयोन्मुख रहते हैं पर सम्यग्दृष्टि गृहस्थ मिथ्यात्वरूपी तिमिरके दूर हो जानेसे इतना समझने लगता है कि विषय प्राप्ति हमारे जीवनका लक्ष्य नहीं परन्तु चारित्रमोहके उदयसे उनका त्याग नहीं कर पाता इस लिये प्रायः उनमे मूर्छित रहता है। देखो मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी महिमा । मिथ्यात्वके उदयमे तो यह मनुष्य विषयोंको ही सुखका कारण मान अहनिश उन्हींमे उन्मुख रहता है पर सम्यक्त्वके होनेपर इसकी दृष्टिमे यह बात आजाती है कि विषय सुखके कारण नहीं अतः उनमें उसकी मूर्छा पूर्ववत् नहीं रहती। पं० श्यामलालजीकी प्रवचन करनेकी शैली उत्तम है । अधिकाश सागरधर्मामृतका प्रवचन वही करते थे। ___ लोगोंके हृदयमे धर्मके प्रति श्रद्धा है परन्तु उन्होंने जो लीक पकड़ ली है या जिन कार्योंको उन्होंने धर्म मान रक्खा है उससे भिन्न कार्यमे वे अपना योग नहीं देना चाहते। उससे भिन्न वात सामने आने पर उन्हे रुचिकर नहीं होती। वर्तमानमे यथार्थ वात कहनेकी आवश्यकता है, क्योकि लोग जिन कार्योंमे धर्म मानते आ रहे हैं उनसे भिन्न कार्योंमे आवश्यकता होने पर भी पैसा व्यय नहीं करना चाहते । देखा गया है कि मन्दिरमे नवीन वेदिकाकी आवश्यकता नहीं फिर भी उसमे वेदी जड़वा देगें। उसमे
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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