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मेरी जीवन गाथा
१००००) तक व्यय कर देवेंगे। पड़ोसमें जैनी आजीविका से रहित होगा, उसे १०) भी पूँजीको न देवेंगे। सिद्धचक्रविधानमे हजारों रुपया व्ययकर देवेंगे किन्तु १ छात्रको पढ़ाने मे १००) भी न देवेंगे । कल्याणककी आवश्यकता न होने पर ५००००) व्यय करनेमे विलम्ब न करेंगे । परन्तु ग्राममें बालकों को धर्मशिक्षा देनेके अर्थ १ अध्यापकको ५०) देनेमें इनका हृदय द्रवीभूत न होगा । देशमें लाखों मनुष्य अनके कष्टसे पीड़ित होने पर भी लोग विवाहादि कार्यों में लाखों रुपया वारूदकी तरह फूँक देनेमे संकोच न करेंगे परन्तु अन्न-वस्त्र विहीनोंकी रक्षामे ध्यान न देवेंगे । देवदर्शनादि करनेमे समय नहीं मिलता ऐसा वहाना कर देवेंगे परन्तु सिनेमा आदि देखने आँख भले ही खराब हो जावे इसकी परवाह न करेंगे ।
लोग शान्ति शान्ति चिल्लाते हैं और मैं भी निरन्तर उसीकी खोजमें रहता हूँ पर उसका पता नहीं चलता । परमार्थसे शान्ति तो तब वे जब कषायका कुछ भी उपद्रव न रहे । कषायातुर प्राणी निरन्तर पर निन्दाके श्रवणमे आनन्द मानता है । जिसे परकी निन्दा में प्रसन्नता होती है उसे आत्मनिन्दामें स्वयमेव विपाद होता है । जिसके निरन्तर हर्ष-विषाद रहते हों वह सम्यग्ज्ञानी कैसा ? यद्यपि आत्मा ज्ञान दर्शनका पिण्ड है फिर भी न जाने क्यों उसमे राग द्वेष होते हैं ? वस्तुत. इनका मूल कारण हमारा संकल्प है अर्थात् परमे निजत्व कल्पना है । यही कल्पना राग द्वेपका कारण है । जब परको निज मानोगे तब अनुकूलमें राग और प्रतिकूलमे द्वेष करना स्वाभाविक ही है । अतः स्त्ररूपमें लीन रहना उत्तम बात है । अपना उपयोग बाहर भ्रमाया तो फंसे । होलीके दिन लोग घरमें छिपे बैठे रहते हैं । कहते हैं कि यदि बाहर निकलेंगे तो लोग कपड़े रंग देंगे । इसी प्रकार विवेकी मनुष्य सोचता रहता है कि मैं