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मेरी जीवन गाथा द्रव्य है । अतएव प्रवचनसारमें श्री कुन्दकुन्ददेवने लिखा है
णत्थि विणा परिणामं अत्यो अत्यं विणेह परिणामो । दवगुणपञ्जयत्यो अत्थो अस्थित्तणिग्पएणो ॥ परिणामके बिना अर्थकी सत्ता नहीं तथा अर्थक विना परिणाम नहीं । जैसे दुग्ध दधि घी छांछ इनके विना गोरस कुछ भी सत्ता नहीं रखता इसी तरह गोरस न हो तो इन दुग्धादिकी भी सत्ता नहीं। एवं यदि आत्माके ज्ञानादि गुण न हों तो आत्माके अस्तित्व की सिद्धि नहीं हो सकती तथा आत्माके विना ज्ञानादि गुणोंका कोई अस्तित्व नहीं । बिना परिणामीके परिणमनका नियामक कोई नहीं । हाँ, यह अवश्य है कि ये गुण सदा परिणमनशील हैं किन्तु अनादिसे आत्मा कर्मोसे सम्बद्ध है, इससे इसके ज्ञानादि गुणोंका विकास निमित्त कारणोंके सहकारसे होता है। होता उसीमे है परन्तु जैसे घटोत्पत्तिकी योग्यता मृत्तिकामें ही होती है किन्तु कुम्भकारके विना घट नहीं बनता । यद्यपि घटकी उत्पत्तिके योग्य व्यापार कुम्भकारमें ही होगा फिर भी मृत्तिका अपने व्यापारसे घटरूप होगी, कुम्भकार घटरूप न होगा। उपादानको मुख्य माननेवालोंका कहना है कि जब मृत्तिकामे घट पर्यायकी उत्पत्ति होती है तब वहाँ कुम्भकारकी उपस्थिति स्वयमेव हो जाती है। यहाँपर यह कहना है कि घटोत्पत्ति स्वयमेव मृतिकामें होती है इसका क्या अर्थ है ? जिस काल मृतिकामें घट होता है उस कालमे क्या कुम्भकारादि निरपेन घट होता हैं या सापेक्ष ? यदि निरपेक्ष घटोत्पत्ति होती है तो एक भी उदाहरण ऐसा वताओ कि मृत्तिकामे कुम्भकारके बिना घट हुप्रा हो लो तो देखा नहीं जाता। यदि साप पक्षको अडीकार करोगे तो स्वयमेव आगया कि कुम्भकारके व्यापार मिना घटकी उत्पनि नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि मुम्भकार घटोत्पत्ति पारी निमित्त है। जैसे आत्मामें रागादि परिणाम होते हैं। कानि