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________________ बरुआसागरमें ग्रीष्मकाल २५७ जिन पदार्थोमें उपादेयता और हेयताका व्यवहार था मोह जानेके बाद वे पदार्थ उपेक्षणीय सुतरों हो जाते हैं। फिर यह विकल्प ही नहीं उठता कि वे पदार्थ अमुक रूपसे हमारे ज्ञानमे आते। मोहके बाद ज्ञान जिस पदार्थको विषय करता है वही उसका विषय रह जाता है। मोहका अभाव होते ही ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा अन्तराय ये तीन कर्म रक्षकके अभावमे अनन्यशरण हो अन्तर्मुहुर्तमें नष्ट हो जाते हैं। इनका नाश होते ही ज्ञान गुणका शुद्ध परिणमन हो जाता है । जो ज्ञान पहले पराश्रित था वही अब केवलज्ञान पर्याय पा कर आदित्य प्रकाशवत् स्वयं प्रकाशमान होता हुआ समस्त पदार्थोंका ज्ञाता हो जाता है और कभी स्वरूपसे च्युत नहीं होता। अतएव धनंजय कविने विषापहार स्तोत्रके प्रारम्भमें लिखा है। स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्तव्यापारवेदी विनिवृत्तसङ्गः। प्रवृद्धकालोऽप्यजरो वरेण्यः पायादपायात्पुरुषः पुराणः ॥ उसकी महिमा वही जाने, हम संसारी परके द्वारा अपनी उन्नति ज्ञात कर पर पदार्थों के संग्रह करनेमें अपनी परिणति को लगा देते हैं और अनन्त संसारके पात्र बनते रहते हैं। वैषयिक सुखके लिये स्त्री पुत्र मित्र धनादि पदार्थों का संग्रह करने में जो जो अन्याय करते हैं वह किसीसे गुप्त नहीं। यहाँ तक देखा जाता है कि इस तरह प्राणियोंका जीवन भी आपत्तिमें आता हो और हमारा निजका प्रयोजन सिद्ध होता हो तो हम उस आपत्तिको मगलरूप अनुभव करते हैं । अस्तु ।। दसरे दिन नगरमे आहारके लिये गये । श्री जैन मन्दिर की बन्दना की। दर्शन कर चित्त प्रसन्न हुआ। मन्दिर जानेका यह प्रयोजन है कि वीतरागदेवकी स्थापना देख कर पीतराग भाव
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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