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मेरी जीवन गाथा
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अर्थात् संसारसे मुक्त नहीं होना चाहते । अन्यको तुच्छ और अपने को महान् बनानेके लिये उस ज्ञानका उपयोग करते हैं जिस ज्ञानसे भेदुन्नानका लाभ था । आज उससे हम गर्वमे पड़ना चाहते हैं । दूसरे दिन प्रात:काल मन्दिरजीमे पुनः प्रवचन हुआ ।
श्रीकुन्दकुन्द देवका कहना है कि शुभोपयोगसे पुण्यवन्ध होता है और उससे आत्माको देवादि सम्यक् पदकी प्राप्ति होती हैं जो तृष्णाका आयतन है श्रतः शुभोपयोग और अशुभोपयोगको भिन्न समझना शुद्धोपयोगकी दृष्टिमे कुछ विशेषता नहीं रखता। दोनों ही बन्धके कारण हैं । लौकिक जन शुभ कर्मको सुशील और अशुभ कर्मको कुशील मानते हैं परन्तु कुन्दकुन्द महाराज कहते हैं कि शुभकर्म सुशील कैसे हो सकता है वह भी तो आत्माको संसारम पात करता है । जिस प्रकार लोहेकी बेड़ी पुरुषको बन्धनमें हालती है उसी प्रकार सुवर्णकी बेड़ी भी पुरुषको बन्धनमें ढालती हैं एतावता उन दोनोंमें कोई भिन्नता नहीं । लोकमें कोई पुरुष जव किर्स. की प्रकृतिको स्त्रविरोधिनी समझ लेता है तो उसके संपर्क से यथाशीघ्र दूर हो जाता है । इसी तरह जब कर्म प्रकृति आत्माको संसार बन्धनमें बालती है तब ज्ञानी वीतराग, उद्यागत शुभाशुभ प्रकृति के साथ राग नहीं करता । सम्यग्दृष्टि मनुष्यके भी शुभाशुभ प्रशस्ताप्रशस्त मोहोदयमें होते हैं । विषयोंसे अणुमात्र भी विरक्ति नहीं तथा मन्द कषायमे दानादि कार्य भी शुभोपयोग में करता है परन्तु उसे परिणाममें अनुराग नहीं । जिस प्रकार रोगी मनुष्य न चाहता हुआ भी औषव सेवन करता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि भी पुण्य पापादि कार्योंको करता है, परमार्थसे दोनो को हेय समभता है । उपादेयता और हेयता यह दोनों मोही जीवोंके होते } परमार्थसे न कोई उपादेय हैं और न हेय हैं किन्तु उपेक्षणीय है । उपेक्षणीय व्यवहार भी औपचारिक होता है । मोहके रहते हुए