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मेरी जीवन गाथा आ जावे । डालमियांनगरमे हम आठ दिन रहे । वाबू जगत्प्रसादजी, अयोध्याप्रसादजी गोयलीय तथा पं० चेतनलाल जी श्रादिने सव व्यवस्था ठीक रक्खी। यहाँ साहु शान्तिप्रसाद जी ने स्वयं अष्टपाहुड़का स्वाध्याय कर सवको श्रवण कराया । शान्तिसे समय वीता। द्वि० वैशाख शुक्ला ११ को साहुं जी कलकत्ता चले गये । पंडित महाशय वनारस चले गये और हम १२ को प्रातःकाल ५ बजे पाश्चप्रभुकी ओर बढ़ गये।
गयामें चातुर्मासका निश्चय डालमियाँनगरसे चलकर शोणभद्र नदी (सोनभद्रा नदी) को नाव द्वारा पारकर नहरके ऊपर एक बंगलामें ठहर गये। स्थान अच्छा था परन्तु संपर्क अच्छा न होनेसे हृदयमे शान्ति नहीं आई। संध्याकाल यहाँसे चलकर वारौन पहुँच गये। रात्रिको विश्राम किया। तदनन्तर प्रातःकाल ५३ मील चलकर पुनपुन गगापर ठहर गये । ठहरनेके लिये १ कुटिया थी, उसीमें ठहर गये । गर्मीका प्रकोप रहा परन्तु श्रीसोनू वाबू गयाके रहनेसे तत्त्व चर्चा का अच्छा प्रभाव रहा। परमार्थसे गर्मीकी व्याकुलतासे विशेष आनन्द नहीं रहा। तृपा परीपहका अनुभव किया। धन्य है उन मुनिराजोंको जो वर्पा, शीत उष्णकालमे नाना प्रकारके कष्ट उठाकर आत्मध्यानसे विचलित नहीं होते। वास्तवमे आत्मज्ञानकी महिमा अपरम्पार है जो संसार वन्धनका नाश करनेवाला है। रात्रि भी यहीं बिताई।
दूसरे दिन प्रातःकाल पुनपुन गङ्गासे ४ मील चलकर जोगियामें १ महाजनके कोठामे निवास किया। यहीं पर भोजन हुआ।