________________
पार्श्वप्रभुकी ओर
४४७ मन्दिर में प्रवचन हुआ। मैंने कहा कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है। संयोगवश यदि यह प्राप्त हो गया है तो इससे इसका कार्य करना चाहिये । भोग विलासमें मस्त रहना मनुष्य जन्मके कार्य नहीं है किन्तु भोगोसे निवृत्त हो संयम धारण करना मनुष्य जन्मका सर्वोपरि कार्य है। जीवनमें इसे अवश्य ही धारण करना चाहिये। अनादिकालसे हमारी अन्य द्रव्य पर दृष्टि लग रही है, अन्य द्रव्यसे तात्पर्य पुद्गल द्रव्यसे है। आत्मा तथा पुद्गल दोनोंका अनादिकालसे ऐसा एक क्षेत्रावगाह हो रहा है कि जिससे आत्माकी ओर दृष्टि जाती ही नहीं है। केवल पुद्गलमें ही दृष्टि उलझ कर रह जाती है। गौके स्तनसे जो दूध दुहा जाता है उसमे पानीका बहुभाग रहता है परन्तु वह दुग्धके साथ इस प्रकार मिला हुआ है कि उसे कोई पानी कहता ही नहीं है। इसी प्रकार शरीर
और आत्मा इस प्रकार मिले हुए हैं कि कोई आत्माको अलगसे जानता ही नहीं है । परन्तु जिस प्रकार मिठया दूधको कड़ाहीमें चढ़ाकर भट्टीकी आँचसे दूध और पानीको अलग अलग कर देता है उसी प्रकार ज्ञानी प्राणी आत्मा और पुद्गलको अपने भेदज्ञानके द्वारा अलग-अलग कर देता है। भले ही आत्माके साथ पुद्गलका जो सम्बन्ध है वह अनादिकालसे चला आ रहा हो पर इससे अनन्त काल तक चला जावेगा यह व्याप्ति नहीं। भव्य जीवके आत्मा और पुद्गलका सम्बन्ध अनादि-सान्त माना गया है। सुवर्णके साथ किट्टकालिमादिका संसर्ग कबसे है यह कौन जानता है। परन्तु अग्निके संयोगसे दोनों अलग-अलग हो जाते हैं। इससे जान पड़ता है कि दोनों पृथक् पृथक् हैं। इसी प्रकार संसार दशामें जीव और पुद्गल एकमेक अनुभवमें आता है परन्तु भेदज्ञानके द्वारा दोनों ही पृथक् पृथक् हो जाते हैं। अतः प्रयत्न ऐसा करो कि जिससे परसे भिन्न आत्माका अस्तित्त्र आपकी दृष्टिमे