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हरिजन मन्दिर प्रवेश
१२१ देखो, विचारो, जो मनुष्य संज्ञी है यदि उसे संसारसे अरुचि हो तथा धर्म साधन करनेकी उसकी भावना जागृत हो तो उसे कोई मार्ग भी तो होना चाहिये । मन्दिर एक आलम्बन है। उससे वञ्चित रहा, आप स्वयं उससे बोलना नहीं चाहते, वाङ्मय आगम है उससे पढ़नेका अधिकारी नहीं, अत स्वाध्याय नहीं कर सकता, आप सुनाना नहीं चाहते तब वह तत्त्वज्ञानसे वञ्चित रहेगा, तत्त्वजानके विना संयमका पात्र कैसे होगा और संयमके बिना आत्माका कल्याण कैसे कर सकेगा ? इस तरह आपने भगवान्का जो साधर्म है उसकी अवहेलना की। धर्म प्राणीमात्रका है उसका पूर्ण विकाश मनुष्य पर्यायमें ही होता है, अतः चाहे चाण्डाल हो अथवा महान् दयालु हो, धर्मश्रवणके अधिकारी दोनों ही हैं। आपको यदि धर्मका रहस्य मिला है तो पक्षपातको तिलाञ्जलि दो और उस धर्मका विकाश करो, अन्यथा उसका लोप करोगे तो तुम स्वयं ऐसे कर्मचक्रमे आओगे और अनन्त कालतक भवभ्रमणके पात्र होओगे। अतः जाति अभिमानका परित्यागकर प्राणी मात्र पर दया करो, जिनके आचरण मलिन हैं उन्हे सदाचारकी शिक्षा दो। वह भी तो मनुष्य हैं। हम जो बड़े बनते हैं, अपनेको पुण्यवान् मानते हैं उन्होंने अपने आरामके लिये शूद्रोको सेवावृत्ति दी और आप स्वयं राजा वन वैठे। सबसे जघन्य काम जिसे आप न कर सके भंगियोंके सुपर्द किया और उनको चाण्डाल शब्दसे पुकारने लगे। प्रायः मनुष्य जो कार्य करता है उसीके अनुरूप उसका परिमाण बन जाता है यही संस्कार कहलाता है। आत्मामे ज्ञान-दर्शन गुण हैं। प्रत्येक आत्मामे यह बात है । यही जव विकृत अवस्थाको धारण करता है त। अनन्त संसारका पात्र होता है और नाना यातनाएं सहता है। प्रत्येक आत्मा ज्ञानादि गुणोंका आश्रय है । अनादि कालसे इसके साथ पर द्रव्यका एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध